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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 40
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    येना॑ स॒मत्सु॑ सा॒सहोऽव॑ स्थि॒रा त॑नुहि॒ भूरि॒ शर्ध॑ताम्। व॒नेमा॑ तेऽअ॒भिष्टि॑भिः॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑। स॒मत्स्विति॑ स॒मत्ऽसु॑। सा॒सहः॑। स॒सह॒ इति॑ स॒सहः॑। अव॑। स्थि॒रा। त॒नु॒हि॒। भूरि॑। शर्ध॑ताम्। व॒नेम॑। ते॒। अ॒भिष्टि॑भि॒रित्य॒भिष्टि॑ऽभिः ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येना समत्सु सासहो व स्थिरा तनुहि भूरि शर्धताम् । वनेमा तेऽअभिष्टिभिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    येन। समत्स्विति समत्ऽसु। सासहः। ससह इति ससहः। अव। स्थिरा। तनुहि। भूरि। शर्धताम्। वनेम। ते। अभिष्टिभिरित्यभिष्टिऽभिः॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 40
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - (ज्ञानी अनुभवी सेनापती-प्रति सैनिकांचे कथन) हे (सुभग) शुभ संपत्तिशाली (सेनापती) (येन) ज्यायोगे आपल्या पराक्रमाने प्रेरित होऊन आम्ही (सैनिकगण) (समत्सु) युद्धामध्ये (सासह:) सर्व कष्ट व आक्रमण सहन करू शकू, अशाप्रकारची (भूरि) अनेक प्रकारची (शर्धताम्) शक्ती आम्हास देत (स्थिरा) दृढ व वीर सैन्यासाठी अधिकाधिक उत्कृष्ट युद्ध साधन-सामग्री (अवतनुहि) वाढवा. (ते) आपल्या (अभिष्टिभि:) इच्छा आणि आदेशाप्रमाणे आम्ही त्या युद्धसामग्री-साधनांचा (वनेम) उपयोग करू. ॥40॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रातदेखील मागील मंत्रातील ‘सुभग’ आणि ‘न:’ या दोन शब्दांची अनुवृत्ती झालेली आहे विद्वानांना हवे की त्यांनी अत्यंत बलशाली वीर सैनिकांचा उत्साह नेहमी वाढवावा. यामुळे ते वीर सैनिक राजा आणि प्रजेची हितकारी कामे करण्यात उत्साहाने प्रवृत्त होतील ॥40॥

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