ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 10
इ॒यं त॑ ऋ॒त्विया॑वती धी॒तिरे॑ति॒ नवी॑यसी । स॒प॒र्यन्ती॑ पुरुप्रि॒या मिमी॑त॒ इत् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । ते॒ । ऋ॒त्विय॑ऽवती । धी॒तिः । ए॒ति॒ । नवी॑यसी । स॒प॒र्यन्ती॑ । पु॒रु॒ऽप्रि॒या । मिमी॑ते । इत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं त ऋत्वियावती धीतिरेति नवीयसी । सपर्यन्ती पुरुप्रिया मिमीत इत् ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । ते । ऋत्वियऽवती । धीतिः । एति । नवीयसी । सपर्यन्ती । पुरुऽप्रिया । मिमीते । इत् ॥ ८.१२.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(ऋत्वियावती) आर्तवयज्ञसहिता (नवीयसी) नूतना (सपर्यन्ती) त्वामर्चन्ती (पुरुप्रिया) अतिप्रसादिका (इयम्, ते, धीतिः) इयं तव स्तुतिः (एति) त्वां गच्छति सा च (मिमीते, इत्) त्वां साधयति हि ॥१०॥
विषयः
ईश्वरनिर्माणमहत्त्वं दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! ते=तव । इयम्=पुरो दृश्यमाना । धीतिः=संसारसृष्टिजन्यविज्ञानम् । नवीयसी=अतिदिनमतिशयिता नवा नवा । एति=प्राप्नोति । कीदृशी धीतिः=ऋत्वियावती=ऋतौ वसन्तादिकाले दृश्यमानमृत्वियं तद्वती । पुनः । सपर्यन्ती । पुनः । पुरुप्रिया=सर्वप्रिया । ईदृशी ते धीतिः । मिमीते इत्=मिमीते एव नवं नवं वस्तु सदा निर्मात्येव ॥१० ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(ऋत्वियावती) प्रत्येक ऋतु में होनेवाले यज्ञों में होनेवाली (नवीयसी) नूतन (सपर्यन्ती) आपकी अर्चना में नियुक्त (पुरुप्रिया) अत्यन्त प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाली (इयम्, ते, धीतिः) यह आपकी स्तुति (एति) आपको प्राप्त हो रही है और वह (मिमीते, इत्) आपका प्रजाओं में प्रकाश करती है ॥१०॥
भावार्थ
हे सर्वोपरि तथा सर्वस्वामी परमेश्वर ! हम लोग ऋतु-२ में यज्ञों द्वारा आपकी स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करते हुए सम्पूर्ण प्रजाओं में आपका यश तथा ऐश्वर्य्य प्रकाशित करते हैं। आप यज्ञरूप, तथा यज्ञ का विस्तार करनेवाले हैं। हे प्रभो ! हमें सब दुःखों से दूर रखकर शक्ति प्रदान करो, कि हम लोग नित्य-नैमित्तिक यज्ञों द्वारा आपके यजन करने में प्रवृत्त रहें ॥१०॥
विषय
ईश्वर के निर्माण का महत्त्व दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे इन्द्र ! (ते) तेरा (धीतिः) संसारसम्बन्धी विज्ञान (नवीयसी) नित्य अतिशय नवीन-नवीन (एति) हम लोगों की दृष्टि में आता है । कहाँ नवीनता प्रतीत होती है, इसको विशेषण द्वारा दिखलाते हैं (ऋत्वियावती) वह धीति ऋतुजन्य वस्तुवाली है अर्थात् प्रत्येक वसन्तादिक ऋतु में एक-२ नवीनता प्रतीत होती है । यहाँ ऋतु शब्द उपलक्षक है । जिस प्रकार पृथिवी के भ्रमण से नव-२ ऋतु आता है, इसी प्रकार इस सौर जगत् का तथा अन्यान्य जगत् का भी परिवर्तन होता रहता है । एवंविध सर्व वस्तु नवीनता दिखलाती है । पुनः कैसी है (सपर्यन्ती) सर्व प्राणियों के मन को पूजन करनेवाली अर्थात् जिससे सबका मन प्रसन्न होता है, पुनः (पुरुप्रिया) सर्वप्रिया है, पुनः (मिमीते+इत्) सदा नवीन-२ वस्तु का निर्माण करता ही रहता है ॥१० ॥
भावार्थ
ऐसे-२ मन्त्रों द्वारा गूढ़ रहस्य प्रकाशित किया जाता है, किन्तु इन पर अधिक यदि टीका-टिप्पणी की जाय, तो ग्रन्थ का बहुत विस्तार हो जायेगा और पाठक पढ़ते-२ थक जाएँगें, अतः यहाँ सब विषय संक्षिप्तरूप से निरूपित होता है । धीति=धी=विज्ञान । ईश्वरीय विज्ञान किस प्रकार सृष्टि में विकाशित हो रहा है, इसको बाह्यरूप से मौनव्रतावलम्बी मुनिगण ही जानते हैं । इस ओर जो जितने लगते हैं, वे उतना जानते हैं । अद्यतनकाल में कैसे-२ नवीन अद्भुत कलाकौशल आविष्कृत हुए हैं, वे इन ही प्राकृत नियमों के अध्ययन से निकले हैं और विद्वानों की इसमें एक दृढ़तर सम्मति है कि ऐसी-२ सहस्रों बातें अभी प्रकृति में गुप्त रीति से लीन हैं, जिनका पता हमको अभी नहीं लगा है । भविष्यत् में वे क्रमशः विकाशित होते जाएँगें । अतः हे मनुष्यों ! इन सृष्टिविज्ञानों का अध्ययन कीजिये, इति ॥१० ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( इयं ) यह ( ते) तेरी ( ऋत्विया-वती: ) ऋतु ऋतु में करने योग्य यज्ञादि वाली, (नवीयसी) अति स्तुत्य ( धीतिः ) स्तुति, ( पुरु प्रिया ) बहुतों को प्रसन्न करने वाली, ( सपर्यन्ती ) परमेश्वर की अर्चना करती हुई, वेदवाणी ( मिमीते इत् ) सबको उपदेश करती है। उसी प्रकार ( ते धीतिः ) हे प्रभो ! तेरी जगत्धारक, पोषक शक्ति, ( ऋत्वियावती ) सूर्य से उत्पन्न ऋतुवत् नियम पूर्वक भिन्न २ सामर्थ्यो से विश्व को चलाने वाली, अति स्तुत्य, सर्वप्रिय, ( मिमीते ) जगत् को बनाती है। ( २ ) राजा की राष्ट्रधारक शक्ति, ( ऋत्वियावती ) 'ऋतु' राजसभादि के सदस्यों वा शासक जनों से युक्त, सर्वप्रिय राष्ट्र की सेवा करती हुई, ( मिमीते इत् ) राष्ट्र का निर्माण करती है । इति द्वितीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'ऋत्वियावती नवीयसी' धीतिः
पदार्थ
[१] (इयम्) = यह (ते धीतिः) = आपकी स्तुति (एति) मुझे प्राप्त होती है। मैं आपका स्तवन करनेवाला बनता हूँ। वह स्तुति मुझे प्राप्त होती है जो (ऋत्वियावती) = ऋत्विय कर्मों से युक्त है, अर्थात् आपके स्तवन के साथ मैं समय-समय पर किये जाने योग्य कर्मों को करनेवाला होता हूँ। अतएव यह स्तुति (नवीयसी) = मेरे जीवन को प्रशस्यतर बनानेवाली होती है [ नव-नु स्तुतौ] । [२] यह स्तुति (सपर्यन्ती) = आपका पूजन करती हुई, पुरुप्रिया खूब ही प्रीणित करनेवाली होती है और (इत्) = निश्चय से (मिमीते) = हमारे जीवनों का उत्तम निर्माण करती है।
भावार्थ
भावार्थ- कर्त्तव्य कर्मों से युक्त प्रभु-स्तवन हमारे जीवनों को प्रशस्त बनाता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord, this ever new divine intelligence of yours constantly operative in nature according to time and seasons is universally sympathetic, loving and honoured, serves life and the environment, and continues to create and cover new forms of life and nature.
मराठी (1)
भावार्थ
अशा अशा मंत्राद्वारे गूढ रहस्य प्रकाशित केले जाते; परंतु यावर अधिक टीका टिप्पणी केली गेली तर ग्रंथाचा विस्तार होईल व पाठक वाचून थकून जातील त्यासाठी येथे सर्व विषय संक्षिप्तरूपाने निरुपित होत आहेत. (धीति = धी= विज्ञान ) ईश्वरीय विज्ञान कोणत्या प्रकारे सृष्टीत विकसित होत आहे, हे बाह्यरूपाने मौन व्रतावलंबी मुनिगण जाणतात. याबाबत जितके जे विचार करत असतात तितके ते जाणतात. आधुनिक काळात कसे कसे नवीन अद्भुत कलाकौशल्ये आविष्कृत झालेली आहेत ते याच प्राकृत नियमाच्या अध्ययनातून काढलेले आहेत व विद्वानाची यामध्ये एक दृढ संमती आहे. अशा अशा सहस्र गोष्टी अद्याप प्रकृतीत गुप्त रीतीने दडलेल्या आहेत, ज्यांचा पत्ता अजून आम्हाला लागलेला नाही. भविष्यात त्या क्रमश: प्रकाशित होतील. त्यासाठी हे माणसांनो! या सृष्टिविज्ञानाचे अध्ययन करा. ॥१०॥
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