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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 14
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    उ॒त स्व॒राजे॒ अदि॑ति॒: स्तोम॒मिन्द्रा॑य जीजनत् । पु॒रु॒प्र॒श॒स्तमू॒तय॑ ऋ॒तस्य॒ यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । स्व॒ऽराजे॑ । अदि॑तिः । स्तोम॑म् । इन्द्रा॑य । जी॒ज॒न॒त् । पु॒रु॒ऽप्र॒श॒स्तम् । ऊ॒तये॑ । ऋ॒तस्य॑ । यत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत स्वराजे अदिति: स्तोममिन्द्राय जीजनत् । पुरुप्रशस्तमूतय ऋतस्य यत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । स्वऽराजे । अदितिः । स्तोमम् । इन्द्राय । जीजनत् । पुरुऽप्रशस्तम् । ऊतये । ऋतस्य । यत् ॥ ८.१२.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अदितिः) अखण्डनीया वेदवाक् (स्वराजे) स्वप्रकाशाय (इन्द्राय) परमात्मने (पुरुप्रशस्तम्) अतिप्रशंसनीयम् (स्तोमम्) स्तोत्रम् (ऊतये) रक्षायै (जीजनत्, उत) उदपीपदत् च (यत्) यत् स्तोत्रम् (ऋतस्य) सत्यस्य परमात्मनः सम्बन्धि ॥१४॥

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    विषयः

    तस्य महिमा स्तूयते ।

    पदार्थः

    नहि केवलं विद्वांसो मनुष्या एवेन्द्रं स्तुवन्ति किन्त्वियं सर्वाप्रकृतिस्तस्यैव गुणग्रामं गायतीत्यनया प्रदर्श्यते । यथा−उत=अपि च । अदितिः=अखण्डनीया प्रवाहरूपेण शाश्वती इयं प्रकृतिर्देवी । स्वराजे=स्वयमेव राजते विराजमानाय । इन्द्राय=परमात्मने । पुरुप्रशस्तम्=पुरुभिर्बहुभिः प्रशंसनीयम् । स्तोमम्=स्तोत्रम् । जीजनत्=अजीजनत्=जनयति=विरचयति । यत्=स्तोत्रम् । ऋतस्य=संसारस्य । ऊतये=रक्षणाय इन्द्रं प्रेरयति । तादृशं स्तोत्रं प्रकृत्या देव्या क्रियत इत्यर्थः ॥१४ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अदितिः) अखण्डनीय वेदवाक् (स्वराजे) स्वयंप्रकाश (इन्द्राय) परमात्मा के लिये (पुरुप्रशस्तम्) अतिप्रशंसनीय (स्तोमम्) स्तोत्र को (ऊतये) रक्षा के लिये (जीजनत्) उत्पन्न करती है, (यत्) जो स्तोम (ऋतस्य) परमात्मा का प्रकाशक है ॥१४॥

    भावार्थ

    वेदवाणी परमात्मा के प्रकाशक स्तोत्रों को उत्पन्न करती है अर्थात् जिन स्तोमों में परमात्मा के गुणकीर्तन का वर्णन पाया जाता है, उनको वेदवाणी भले प्रकार प्रकट करती है और वही स्तोत्र हमको समृद्ध करके सब ओर से हमारी रक्षा के हेतु होते हैं, या यों कहो कि जिन स्तोत्रों में हमारी रक्षा का विधान है, उनके अनुकूल आचरण करने से हम सर्वदा सुरक्षित रहते हैं, अतएव उनके अनुकूल वर्तना मनुष्यमात्र को श्रेयस्कर है ॥१४॥

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    विषय

    उसकी महिमा दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    केवल विद्वान् मनुष्य ही इन्द्र की स्तुति नहीं करते हैं किन्तु सम्पूर्ण यह प्रकृतिदेवी भी उसी के गुणग्राम गाती है, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं । यथा−(उत) और (अदितिः) यह अखण्डनीया अदीना और प्रवाहरूप से नित्या प्रकृतिदेवी भी (स्वराजे) स्वयं विराजमान (इन्द्राय) इन्द्र नामधारी भगवान् के लिये (पुरुप्रशस्तम्) बहु प्रशंसनीय (स्तोमम्) स्तोत्र को (जीजनत्) उत्पन्न करती रहती है । (यत्) जो स्तोत्र (ऋतस्य) इस संसार की (ऊतये) रक्षा के लिये परमात्मा को प्रेरित करता है, इति ॥१४ ॥

    भावार्थ

    प्रत्येक वस्तु अपनी-२ सहायता और रक्षा के लिये परमात्मा से प्रार्थना कर रही है ॥१४ ॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( उत ) और ( स्वराजे ) स्वयंप्रकाश, ( इन्द्राय ) ऐश्वर्यवान् प्रभु परमेश्वर के ( स्तोमम् ) स्तुति वा उपदेश-रूप वेद ज्ञान को ( अदितिः ) अखण्ड, अविनाशी वेद ही ( जीजनत् ) प्रकट करता है। और ( यत् ) जो ( ऋतस्य ) सत्य ज्ञान या परम कारणमय प्रभु का ( पुरु प्रशस्तं ) बहुत विद्वानों से उपदेश करने योग्य ज्ञान है उसको (ऊतये) जगत् की रक्षा के लिये ( अदितिः ) अखण्ड व्रत वाला तपस्वी पुरुष ही ( जीजनत् ) प्रकट या प्रकाशित करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    पुरुप्रशस्त सोम

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (अदिति:) = [अ-दितिः, दो अवखण्डने] व्रतमय जीवनवाला, व्रतों को न तोड़नेवाला यह पुरुष स्वराजे स्वयं देदीप्यमान, किसी अन्य से दीप्ति को न प्राप्त करनेवाले (इन्द्राय) = शत्रुओं के विद्रावक प्रभु के लिये (स्तोमम्) = स्तुति को (जीजनत्) = उत्पन्न करता है, स्तुति को करनेवाला बनता है। [२] उस सोम को अपने में प्रादुर्भूत करता है (यत् ऋतस्य) = जो उस सत्यस्वरूप प्रभु का है और (पुरुप्रशस्तम्) = अत्यन्त प्रशस्त है। (ऊतये) = जो स्तोम रक्षण के लिये होता है। यह स्तोम स्तोता को वासनाओं व रोगों के आक्रमण से बचाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। यह स्तुति हमारा रक्षण करेगी और हमें अतिप्रशस्त जीवनवाला बनायेगी।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And mother Prakrti, inviolable Nature, too bursts into songs of adoration in honour of self-refulgent Indra, which, being all elevating and inspiring, moves him to protection and advancement of the world of his dynamic creation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रत्येक वस्तू आपापली सहायता व रक्षण यासाठी परमात्म्याची प्रार्थना करते. ॥१४॥

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