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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 24
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    न यं वि॑वि॒क्तो रोद॑सी॒ नान्तरि॑क्षाणि व॒ज्रिण॑म् । अमा॒दिद॑स्य तित्विषे॒ समोज॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । यम् । वि॒वि॒क्तः । रोद॑सी॒ इति॑ । न । अ॒न्तरि॑क्षाणि । व॒ज्रिण॑म् । अमा॑त् । इत् । अ॒स्य॒ । ति॒त्वि॒षे॒ । सम् । ओज॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यं विविक्तो रोदसी नान्तरिक्षाणि वज्रिणम् । अमादिदस्य तित्विषे समोजसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । यम् । विविक्तः । रोदसी इति । न । अन्तरिक्षाणि । वज्रिणम् । अमात् । इत् । अस्य । तित्विषे । सम् । ओजसः ॥ ८.१२.२४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 24
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (वज्रिणम्) वज्रवन्तम् (यम्) यं परमात्मानम् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (न) नहि (विविक्तः) पृथक्कर्तुं न शक्नुवन्ति (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षप्रदेशा अपि (न) न तथा (समोजसः) पराक्रमवतः (अस्य) अस्य परमात्मनः (अमात्, इत्) बलादेव (तित्विषे) इदं जगद्दीप्यते ॥२४॥

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    विषयः

    तस्य महत्त्वं दर्शयति ।

    पदार्थः

    यं वज्रिणम्=दण्डधारिणमिन्द्रम् । रोदसी=द्यावापृथिव्यौ । न विविक्तः=स्वसमीपात् पृथक् कर्त्तुं न शक्नुतः । तथा अन्तरिक्षाणि=आकाशा अपि । यं स्वसामीप्यात् पृथक् कर्त्तुं न शक्नुवन्ति । ओजसः=ओजस्विनो बलवतः । ‘अत्र विनो लुक्’ । अस्य=इन्द्रस्य । अमात् इत्=बलादित्=बलादेव । सर्वं जगत् । सं तित्विषे=दीप्यते प्रकाशते ॥२४ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वज्रिणम्) वज्रशक्तिवाले (यम्) जिस परमात्मा को (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक (न, विविक्तः) पृथक् नहीं कर सकते (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षस्थ प्रदेश भी (न ) पृथक् नहीं कर सकते (समोजसः) अत्यन्त पराक्रमवाले (अस्य) इस परमात्मा के (इत्) ही (अमात्) बल से (तित्विषे) यह जगत् दीप्त हो रहा है ॥२४॥

    भावार्थ

    वज्रशक्तिसम्पन्न परमात्मा, जो सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों के जीवों को प्राणनशक्ति देनेवाला है, उसको कोई भी पृथक् नहीं कर सकता, क्योंकि वही सबका जीवनाधार, वही प्राणों का प्राण, वही सबको वास देनेवाला और वही सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों को दीप्त करनेवाला है, उसकी आज्ञापालन करना ही अमृत की प्राप्ति और उससे विमुख होना ही मृत्यु है ॥२४॥

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    विषय

    उसका महत्त्व दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक (यम्) जिस (वज्रिणम्) दण्डधारी इन्द्र को (न+विविक्तः) अपने समीप से पृथक् नहीं कर सकता अथवा अपने में उसको समा नहीं सकता और (अन्तरिक्षाणि+न) मध्यस्थानीय आकाशस्थ लोक भी जिसको अपने समीप से पृथक् नहीं कर सकता, (अस्य) इस (ओजसः) महाबली इन्द्र के (अमात्+इत्) बल से ही यह सम्पूर्ण जगत् (सम्+तित्विषे) अच्छे प्रकार भासित हो रहा है ॥२४ ॥

    भावार्थ

    वह ईश्वर इस पृथिवी, द्युलोक और आकाश से भी बहुत बड़ा है, अतः वे इसको अपने में रख नहीं सकते । उसी के बल से ये सूर्यादि जगत् चल रहे हैं, अतः वही उपास्य है ॥२४ ॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यं ) जिसको ( रोदसी ) भूमि और आकाश भी ( न विविक्तः ) विवेचन नहीं कर सकते और ( यं ) जिस ( वज्रिणम् ) बलशाली, प्रभु को ( अन्तरिक्षाणि न विविक्तः ) नाना अन्तरिक्ष भाग भी विवेचन नहीं कर सकते अर्थात् आकाश, भूमि और अन्तरिक्ष के नाना सर्ग, सूर्य, नक्षत्र, चन्द्र, वायु, भूमि, पर्वत, समुद्रादि भी जिसके महान् ऐश्वर्यमय शक्तिशाली रूप का पूरी तरह से विवेचन नहीं करा सकते उसी ( अस्य ओजसः ) बलस्वरूप प्रभु के ( अमात् इत् ) बल से ही यह समस्त जगत् ( तित्विषे ) प्रकाशित होता है। ( २ ) ( रोदसी ) उपदेष्टा और शिष्य भी जिस प्रभु का वाद द्वारा विवेचन नहीं कर सकते ( अन्तरिक्षाणि ) अन्तःकरणों के व्यापार भी जिसका विवेक, अर्थात् पृथक स्वरूप नहीं बतला सकते, उसी परम प्रभु के बल से ज्ञान का प्रकाश होता है। वही स्वयंप्रकाशस्वरूप परमेश्वर अपने सामर्थ्य से जगत् को प्रकाशित करता वही अपना भी प्रकाश करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु की व्याप्ति व दीप्ति

    पदार्थ

    [१] प्रभु वे हैं (यम्) = जिनको (रोदसी) = ये द्यावापृथिवी (न विविक्तः) = अपने से पृथक् नहीं कर पाते। प्रभु सम्पूर्ण द्यावापृथिवी में व्याप्त हैं, कोई स्थान नहीं जहाँ कि प्रभु न हों। (वज्रिणम्) = उस वज्रहस्त शासक प्रभु को (अन्तरिक्षाणि) = [अन्तराक्षान्तानि] द्यावापृथिवी के बीच में रहनेवाले ये सब लोक-लोकान्तर न=पृथक् नहीं कर पाते। प्रभु इन लोकों में हैं, ये लोक प्रभु में हैं। [२] (अस्य) = इस (ओजसः) = ओज के पुञ्ज प्रभु की (अमात्) = ओजस्विता से (इत्) = ही (संतित्विषे) = सब लोक-लोकान्तर सम्यक् दीप्त होते हैं। सब लोकों को दीप्त करनेवाले वे प्रभु हैं। मुझे भी प्रभु से ही दीप्ति प्राप्त होगी।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे सर्वव्यापक प्रभु ही अपनी व्याप्ति से सब पिण्डों को दीप्त कर रहे हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Neither heaven nor earth nor the middle regions comprehend the lord of thunderous power, nor do they shake or disengage him. Indeed the universe shines and vibrates by the one and sole power of this lord of splendour.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तो ईश्वरच पृथ्वी, द्युलोक व आकाशापेक्षा मोठा आहे. त्यामुळे ते त्याला आपल्या वशमध्ये ठेवू शकत नाहीत. त्याच्या बलानेच हे सूर्य इत्यादी जग चालत आहे. त्यासाठी तोच उपास्य आहे. ॥२४॥

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