Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 12 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 11
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    गर्भो॑ य॒ज्ञस्य॑ देव॒युः क्रतुं॑ पुनीत आनु॒षक् । स्तोमै॒रिन्द्र॑स्य वावृधे॒ मिमी॑त॒ इत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गर्भः॑ । य॒ज्ञस्य॑ । दे॒व॒ऽयुः । क्रतु॑म् । पु॒नी॒ते॒ । आ॒नु॒षक् । स्तोमैः॑ । इन्द्र॑स्य । व॒वृ॒धे॒ । मिमी॑ते । इत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गर्भो यज्ञस्य देवयुः क्रतुं पुनीत आनुषक् । स्तोमैरिन्द्रस्य वावृधे मिमीत इत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गर्भः । यज्ञस्य । देवऽयुः । क्रतुम् । पुनीते । आनुषक् । स्तोमैः । इन्द्रस्य । ववृधे । मिमीते । इत् ॥ ८.१२.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (यज्ञस्य, गर्भः) यज्ञस्य गृहीता ऋत्विक् (देवयुः) देवानिच्छन् (आनुषक्) क्रमेण (क्रतुम्, पुनीते) यज्ञं साधयति (स्तोमैः) स्तोत्रैः (इन्द्रस्य, वावृधे) इन्द्रं वर्धयति सः (मिमीते, इत्) ईश्वरं साधयति हि ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    तदीयनिर्माणमहिमानं दर्शयति ।

    पदार्थः

    यज्ञस्य=यजनीयस्य इन्द्रस्य । गर्भः=गरिता स्तोता । यद्वा । ग्रहीता परमात्मतत्त्वविज्ञाता । आनुषक्=आनुपूर्व्येण=क्रमशः आद्यन्त- पर्य्यन्तम् । क्रतुम्=शुभमनुष्ठेयं कर्म । पुनीते=शोधयति । कीदृशो गर्भः । देवयुः=देवं परमात्मानं मनसा वाचा यः कामयते स देवयुः । यतः सदेव पुरतः क्रतुं पुनीते । स हीश्वरोपासकः । इन्द्रस्य=परमस्य देवस्य । स्तोमैः=स्तोत्रैः । वावृधे=लोकेऽस्मिन् अमुष्मिन्नपि वृद्धंगतो भवति । अतः सोऽपि भक्तः मिमीते इत् । विविधानि विज्ञानानि शुभमार्गांश्च निर्मात्येव ॥११ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (यज्ञस्य, गर्भः) यज्ञ का संग्रह करनेवाला ऋत्विक् (देवयुः) देवों को चाहनेवाला (आनुषक्) क्रम से (क्रतुम्, पुनीते) सब यज्ञों का अनुष्ठान करता और (स्तोमैः) स्तोत्रों द्वारा (इन्द्रस्य, वावृधे) परमात्मा को बढ़ाता है, वह (मिमीते, इत्) परमात्मा को प्रकाशित ही करता है ॥११॥

    भावार्थ

    यज्ञ का प्रारम्भ करनेवाला ऋत्विक् सब विद्वानों की उपस्थिति में यज्ञ का अनुष्ठान करता हुआ स्तोत्रों द्वारा प्रथम परमात्मा का यजन करता अर्थात् परमात्मा की महिमा को सब पर प्रकट करके उसके महत्त्व को बढ़ाता और पश्चात् यज्ञ का प्रारम्भ करता है ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उसके निर्माण की महिमा दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (यज्ञस्य) यजनीय=पूजनीय परमात्मा का (गर्भः) स्तुति पाठक यद्वा परमात्मतत्त्व के ग्रहण करनेवाला विद्वान् ही (आनुषक्) आनुपूर्विक=एक एक करके (क्रतुम्) शुभकर्म को (पुनीते) पवित्र करता है । वह गर्भ कैसा है (देवयुः) मन और वचन से केवल ईश्वर की शुभ इच्छा की कामना करनेवाला । ऐसा स्तोता (इन्द्रस्य) परमात्मा के (स्तोमैः) स्तोत्रों से=परमेश्वर की सेवा से इस जगत् में तथा अपर लोक में (वावृधे) उत्तरोत्तर उन्नति करता ही जाता है और (मिमीते+इत्) वह भक्त नाना विज्ञानों और शुभ कर्मों को रचता ही रहता है यद्वा (यज्ञस्य+गर्भः) यज्ञ का कारण (देवयुः) परम पवित्र है और (क्रतुम्) कर्म करनेवाले पुरुष को (पुनीते) पवित्र करता है, इत्यादि ॥११ ॥

    भावार्थ

    जो कोई एकाग्रचित्त होकर ज्ञानपूर्वक उसका यजन करता है, वह पवित्र होता है और उसकी कीर्ति जगत् में विस्तीर्ण होती है ॥११ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( देवयुः ) उस सर्वस्व दाता प्रभु को चाहने वाला मनुष्य ( यज्ञस्य गर्भः ) यज्ञ, परम उपासनीय, पूज्य, सर्वदाता प्रभु की स्तुति करने वाला, उसी का आश्रय ग्रहण करने वाला और उसी के भीतर माता के पेट में बालक के समान, उसी प्रभु की रक्षा में पालित पोषित होकर ( आनुषक् ) निरन्तर (क्रतुं ) अपने ज्ञान और कर्म को ( पुनीते) शुद्ध पवित्र करता है। वह ( इन्द्रस्य स्तोमैः ) ऐश्वर्यवान् प्रभु के उपदेशमय वेदवचनों तथा स्तुति-वचनों से ( ववृधे ) बढ़ता और ( मिमीते इत्) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु का ज्ञान भी कर लेता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    गर्भो यज्ञस्य, देवयुः

    पदार्थ

    [१] (यज्ञस्य गर्भः) = यज्ञ का ग्रहण करनेवाला, सदा यज्ञशील, (देवयुः) = दिव्य गुणों को अपने साथ जोड़ने की कामनावाला यह स्तोता (आनुषक्) = निरन्तर (क्रतुम्) = अपनी शक्ति व प्रज्ञान को (पुनीते) = पवित्र करता है सदा यज्ञों में प्रवृत्त रहने से उसकी शक्ति बढ़ती है और प्रभु प्राप्ति की कामना उसे ज्ञानदीप्त बनाती है। [२] यह व्यक्ति (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (स्तोमैः) = स्तोत्रों से (वावृधे) = वृद्धि को प्राप्त करता है और (इत्) = निश्चय से (मिमीते) = अपने जीवन का निर्माण करता है। प्रभु का स्तवन उसे प्रभु जैसा बनने की प्रेरणा देता है और इस प्रकार उसके जीवन का सुन्दर निर्माण होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम यज्ञशील बनें, दिव्यगुणों को अपनाने की कामना करें, प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त हों । यही जीवन-निर्माण का मार्ग है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The devotee of Indra and lover of divinities of nature and humanity, enactor of yajna as well as shaped by yajna, continuously performs holy actions with sanctity and faith, creates new forms of holy actions and rises in life by divine songs and tributes in honour of Indra.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो कोणी एकाग्रचित्त बनून ज्ञानपूर्वक त्याचे यजन करतो तो पवित्र होतो व त्याची कीर्ती जगात पसरते ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top