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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 9
    ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इन्द्र॒: सूर्य॑स्य र॒श्मिभि॒र्न्य॑र्शसा॒नमो॑षति । अ॒ग्निर्वने॑व सास॒हिः प्र वा॑वृधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । सूर्य॑स्य । र॒श्मिऽभिः॑ । नि । अ॒र्श॒सा॒नम् । ओ॒ष॒ति॒ । अ॒ग्निः । वना॑ऽइव । स॒स॒हिः । प्र । व॒वृ॒धे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र: सूर्यस्य रश्मिभिर्न्यर्शसानमोषति । अग्निर्वनेव सासहिः प्र वावृधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । सूर्यस्य । रश्मिऽभिः । नि । अर्शसानम् । ओषति । अग्निः । वनाऽइव । ससहिः । प्र । ववृधे ॥ ८.१२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्रः) स परमात्मा (सूर्यस्य, रश्मिभिः) सूर्यस्य किरणैः (अर्शसानम्) शैत्यनिमित्तान् रोगान् (न्योषति) दहति (अग्निः) यथाग्निः (वना इव) वनानि दहति तद्वत् अतः (सासहिः) अति सोढासः (प्रवावृधे) सर्वानतिक्रम्य वर्तते ॥९॥

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    विषयः

    तस्यानुग्रहं दर्शयति ।

    पदार्थः

    परमात्मा केन प्रकारेण विघ्नान् शमयतीत्यनया प्रदर्श्यते । यथा−इन्द्रः । सूर्य्यस्य=परितः स्थितानां ग्रहाणां प्रेरकस्यादित्यस्य । रश्मिभिः=किरणैः । अर्शमानम्=बाधमानं निखिलविघ्नम् । नि=नितराम् । ओषति=भस्मीकरोति । उष दाहे । अत्र दृष्टान्तः । अग्निर्वनेव=वना=वनानि इव यथा अग्निर्दहति तद्वत् परमात्मा भक्तानां सर्वविघ्नविनाशं करोति । ईदृक् सासहिरभिभवनशीलो देवः । प्र+वावृधे=प्रकर्षेण सदा जगत्कल्याणाय वर्धते ॥९ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) वह परमात्मा (सूर्यस्य, रश्मिभिः) सूर्य की किरणों द्वारा (अर्शसानम्) शैत्यनिमित्तक विकारों को (न्योषति) दहन करता है, (अग्निः) जैसे अग्नि (वना इव) वनों को, अतः (सासहिः) अत्यन्त सहनशील परमात्मा (प्रवावृधे) सबको अतिक्रमण करके विराजमान है ॥९॥

    भावार्थ

    वह पूर्ण परमात्मा, जो सर्वोपरि विराजमान है, वही हमारे दुःखों का हर्त्ता और सुखों का देनेवाला है। जैसे सूर्य्य अपनी रश्मियों द्वारा शीतनिमित्तक विकारों को निवृत्त करता है, तद्वत् परमात्मा सब विकारों को निवृत्त करके हमको सुख प्राप्त कराते हैं, अतएव उनकी आज्ञापालन करना ही सुख की प्राप्ति और परमात्मा से विमुख होना ही घोर दुःखों में पड़कर मनुष्यजीवन को नष्ट करना है ॥९॥

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    विषय

    उसकी अनुग्रह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    परमात्मा किस प्रकार से विघ्नों को शमित करता है, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं । यथा−(इन्द्रः) वह महान् देव (सूर्य्यस्य) परितः स्थित ग्रहों के नित्य प्रेरक सूर्य्य के (रश्मिभिः) किरणों से (अर्शमानम्) बाधा करनेवाले निखिल विघ्नों को (नि+ओषति) अतिशय भस्म किया करता है (अग्निः+वना+इव) जैसे अग्नि ग्रीष्म समय में स्वभावतः प्रवृत्त होकर वनों को भस्मसात् कर देता है, तद्वत् परमात्मा भक्तजनों के विघ्नों को स्वभाव से ही विनष्ट किया करता है । ईदृक् (सासहिः) सर्वविघ्नविनाशक देव (प्र+वावृधे) अतिशय जगत्कल्याणार्थ बढ़ता है ॥९ ॥

    भावार्थ

    परमदेव ने इस जगत् की रक्षा के लिये ही सूर्य्यादिकों को स्थापित किया है । सूर्य्य, अग्नि, वायु और जलादि पदार्थों द्वारा ही सकल विघ्नों को शान्त किया करता है ॥९ ॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् प्रभु ( सूर्यस्य रश्मिभिः ) सूर्य की किरणों से ( अर्शसानम् ) नाशकारी रोग और अन्धकार को (नि-ओषति) सर्वथा ऐसे भस्म कर देता है जैसे ( अग्निः वना इव ) आग वनों और काष्ठों को जला डालती है। वह ( सासहि: ) सर्वोत्कृष्ट बलशाली, सब को पराजित करने में समर्थ होकर ( प्र वावृधे ) सब से अधिक बढ़ जाता है, वह सबसे महान् है। ( २ ) इसी प्रकार इन्द्र, राजा सूर्य-रश्मिवत् अपने नियामक शासकों से प्रजानाशक दुष्ट वर्ग को पीड़ित करे, अग्निवत् भस्म करे, सर्वविजयी होकर बढ़े ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अर्शसान- दहन

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (सूर्यस्य) = ज्ञानसूर्य की (रश्मिभिः) = किरणों से (अर्शसानम्) = राक्षसीभावों को (नि ओषति) = नितरां दग्ध करता है। इस प्रकार दग्ध करता है कि (इव) = जैसे (अग्निः वना) = आग वनों को दग्ध करती है। ज्ञानाग्नि में सब वासनाओं के झाड़ी-झंकाड़ जाल जाते हैं। [२] (सासहि:) = यह राक्षसीभावों को कुचलनेवाला पुरुष प्रवावृधे खूब ही वृद्धि को प्राप्त होता है। राक्षसीभावों का विनाश ज्ञानवृद्धि द्वारा ही होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जितेन्द्रिय बनकर ज्ञान को बढ़ाते हुए, आसुरीभांवों को विनष्ट करनेवाले बनें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When Indra with sun-rays kills antilife agents such as disease carrying bacteria in the atmosphere, he rises victorious and exalted like fire over forests.$All

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमदेवाने या जगाच्या रक्षणासाठीच सूर्य इत्यादींना स्थापन केलेले आहे. परमदेव सूर्य, अग्नी, वायू व जल इत्यादी पदार्थांद्वारेच संपूर्ण विघ्नांना शांत करतो. ॥९॥

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