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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 25
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    तदि॒न्द्राव॒ आ भ॑र॒ येना॑ दंसिष्ठ॒ कृत्व॑ने । द्वि॒ता कुत्सा॑य शिश्नथो॒ नि चो॑दय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । इ॒न्द्र॒ । अवः॑ । आ । भ॒र॒ । येन॑ । दं॒सि॒ष्ठ॒ । कृत्व॑ने । द्वि॒ता । कुत्सा॑य । शि॒श्न॒थः॒ । नि । चो॒द॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदिन्द्राव आ भर येना दंसिष्ठ कृत्वने । द्विता कुत्साय शिश्नथो नि चोदय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । इन्द्र । अवः । आ । भर । येन । दंसिष्ठ । कृत्वने । द्विता । कुत्साय । शिश्नथः । नि । चोदय ॥ ८.२४.२५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 25
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, wondrous lord of beauty and glory, bring us that protection and immunity by which you protect the active sage of holy action against negativities and destroy the twofold mental and physical ailments of humanity. We pray, O lord, inspire and activate those internal and natural defences of good health.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा ईश्वर समदृष्टी आहे तसेच शक्यतो आम्हीही व्हावे. ॥२५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तस्य प्रार्थनां दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र=हे ईश ! हे दंसिष्ठ=परमाद्भुत ! परमदर्शनीय ! परमविघ्नविनाशक देव ! तदवः=तद्रक्षणम् । अस्मभ्यम् । आभर । येन रक्षणेन । कृत्वने=कर्म कुर्वते । कुत्साय=जगन्निन्दकाय ऋषये । द्विता=द्विविधान् शत्रून् । शिश्नथः=हंसि । तदेव पालनम् । सर्वत्र निचोदय=नितरां प्रेरय ॥२५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    उसकी प्रार्थना दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ईश ! (दंसिष्ठ) हे परमाद्भुत ! हे परम दर्शनीय ! हे सर्वविघ्नविनाशक ! तू (तत्+अवः) यह सहायता और रक्षा हम लोगों को (आभर) दे, जिससे (कृत्वने) कर्म करनेवाले (कुत्साय) जगत् के कुकर्मों की निन्दा करनेवाले संसार के दोषों को दिखलानेवाले ऋषि के लिये (द्विता) दो प्रकार के शारीरिक और मानसिक शत्रुओं को (शिश्नथः) हनन करता, उसी रक्षा की (निचोदय) सर्वत्र प्रेरणा कर ॥२५ ॥

    भावार्थ

    जैसे ईश्वर समदृष्टि है, वैसे यथासम्भव हम भी होवें ॥२५ ॥

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    विषय

    दुष्टों के नाश की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( दंसिष्ठ ) दुष्टों और दुःखों के नाशक ! तू ( येन ) जिस रक्षा सामर्थ्य से ( कृत्वने कुत्साय ) कर्म करने में तत्पर स्तुतिकर्त्ता भक्तजन के ( द्विता शिश्नथः ) इस और उस दोनों लोकों के दुःखों को शिथिल कर देता है तू ( तत् ) उसी ( अवः ) रक्षा और ज्ञान को हमें (आभर) प्रदान कर। ( नि चोदय ) उसी से हमें नित्य सन्मार्ग में प्रेरित कर। इत्येकोनविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु-रक्षण के द्वारा ज्ञान व शक्ति का विस्तार

    पदार्थ

    [१] हे (दंसिष्ठ) = शत्रुओं का उपक्षय करनेवाले (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (येन) = जिस रक्षण के द्वारा आप (कृत्वने) = कर्त्तव्य कर्मों को करनेवाले पुरुष का पालन करते हैं, (तद् अवः) = उस रक्षण को हमारे लिये (आभर) = प्राप्त कराइये। [२] आप अपने रक्षण के द्वारा (कुत्साय) = वासनाओं का संहार करनेवाले इस पुरुष के लिये द्विता ज्ञान व शक्ति के विस्तार के हेतु से [ द्वौ तनोति ] (शिश्नथः) = शत्रुओं का संहार करते हैं। शत्रुओं के संहार के द्वारा उसके ज्ञान व सामर्थ्य का वर्धन करते हैं। हमारे लिये भी उस रक्षण को (नि चोदय) = नितरां प्रेरित करिये। आप के इस रक्षण के द्वारा हम शत्रुओं से अनाक्रान्त होकर ज्ञान व शक्ति का वर्धन कर पायें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु कर्त्तव्यपरायण व्यक्ति का रक्षण करते हैं। वासनाओं का संहार करनेवाला पुरुष प्रभु-रक्षण को प्राप्त करता है। प्रभु से रक्षित व्यक्ति वासनाओं से आक्रान्त न होकर ज्ञान व शक्ति का विस्तार कर पाता है।

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