ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 24/ मन्त्र 6
आ त्वा॒ गोभि॑रिव व्र॒जं गी॒र्भिॠ॑णोम्यद्रिवः । आ स्मा॒ कामं॑ जरि॒तुरा मन॑: पृण ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । गोभिः॑ऽइव । व्र॒जम् । गीः॒ऽभिः । ऋ॒णो॒मि॒ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । आ । स्म॒ । काम॑म् । ज॒रि॒तुः । आ । मनः॑ । पृ॒ण॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा गोभिरिव व्रजं गीर्भिॠणोम्यद्रिवः । आ स्मा कामं जरितुरा मन: पृण ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । गोभिःऽइव । व्रजम् । गीःऽभिः । ऋणोमि । अद्रिऽवः । आ । स्म । कामम् । जरितुः । आ । मनः । पृण ॥ ८.२४.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 24; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of clouds and mountains, wielder of the thunderbolt, like a cowherd reaching the stalls along with the cows do I come to you with my songs of adoration. O lord, fulfil the desire and prayer of the celebrant and bless my mind with peace and divine love.
मराठी (1)
भावार्थ
मनाची गती व प्रयत्न अनंत आहेत. त्यासाठी तेही तोच (ईश्वर) पूर्ण करू शकतो. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! गोभिरिव व्रजम्=यथा गोपालो गोभिः सह गोष्ठं गच्छति तद्वत् । हे अद्रिवः=हे संसाररक्षक ! गीर्भिः=स्तुतिभिः सह । त्वा । आ । ऋणोमि=प्राप्नोमि । हे ईश ! जरितुः=स्तुतिपाठकस्य मम । कामम् । मनश्च । आपृण स्म=आपूरयैव ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
हे इन्द्र (अद्रिवः) हे संसाररक्षक देव ! (गोभिः+इव+व्रजम्) जैसे गोपाल गौओं के साथ गोष्ठ में पहुँचता है, तद्वत् मैं (गीर्भिः) स्तुतियों के साथ (त्वा+आ+ऋणोमि) तेरे निकट पहुँचता हूँ । ईश (जरितुः) मुझ स्तुतिपाठक के (कामम्) कामनाओं को (आ+पृण+स्म) पूर्ण ही कर (आ) और (मनः) मन को भी पूर्ण कर ॥६ ॥
भावार्थ
मन की गति और चेष्टा अनन्त है, अतः इसको भी वही पूर्ण कर सकता है ॥६ ॥
विषय
परम शरण प्रभु ।
भावार्थ
हे ( अद्रिवः ) मेघवत् उदार और पर्वतवत् दृढ़ पुरुषों के या शस्त्रबल के स्वामिन् ! ( गोभिः व्रजम् इव ) बैलों या अश्वों से जिस प्रकार कोई गन्तव्य मार्ग को प्राप्त करता है उसी प्रकार मैं ( गीर्भिः ) चाणियों द्वारा ( व्रजं ) प्राप्य एवं गन्तव्य परम शरणरूप ( त्वा ) तुझको ही (आ ऋणोमि ) प्राप्त होजाता हूँ। तू ( जरितुः ) स्तोता प्रार्थी के ( कामं आ पृण स्म ) अभिलाषा को पूर्ण कर और ( मनः आ पृण ) उसके मन को पूर्ण कर वा उसे ज्ञान से भरपूर कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ १—२७ इन्द्रः। २८—३० वरोः सौषाम्णस्य दानस्तुतिर्देवता॥ छन्दः–१, ६, ११, १३, २०, २३, २४ निचृदुष्णिक्। २—५, ७, ८, १०, १६, २५—२७ उष्णिक्। ९, १२, १८, २२, २८ २९ विराडुष्णिक्। १४, १५, १७, २१ पादनिचृदुष्णिक्। १९ आर्ची स्वराडुष्णिक्। ३० निचुदनुष्टुप्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'कामं मनः' आपण
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो ! मैं (त्वा) = आपको (गीर्भिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (ऋणोमि) = सर्वथा प्राप्त होता हूँ। उसी प्रकार प्राप्त होता हूँ, (इव) = जैसे एक ग्वाला (गोभिः) = गौव के साथ (व्रजम्) = एक गौओं के बाड़े को प्राप्त होता है। मैं भी सब इन्द्रियरूप गौवों को नियन्त्रित करके आपके समीप प्राप्त होता हूँ। [२] हे प्रभो! आप (जरितुः) = स्तोता की (कामम्) = अभिलाषा को (आपूण) = पूर्ण करिये तथा (मनः) = इसके मन को (स्म) = अवश्य आपण पूरण करिये।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्तुति वाणियों से प्रभु की ओर जानेवाले हों । प्रभु हमारी कामनाओं को पूर्ण करेंगे और हमारे मनों की न्यूनताओं को दूर करके उनका पूरण करेंगे।
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