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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 62/ मन्त्र 17
    ऋषिः - जमदग्निः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तं त्रि॑पृ॒ष्ठे त्रि॑वन्धु॒रे रथे॑ युञ्जन्ति॒ यात॑वे । ऋषी॑णां स॒प्त धी॒तिभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । त्रि॒ऽपृ॒ष्ठे । त्रि॒ऽब॒न्धु॒रे । रथे॑ । यु॒ञ्ज॒न्ति॒ । यात॑वे । ऋषी॑णाम् । स॒प्त । धी॒तिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं त्रिपृष्ठे त्रिवन्धुरे रथे युञ्जन्ति यातवे । ऋषीणां सप्त धीतिभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । त्रिऽपृष्ठे । त्रिऽबन्धुरे । रथे । युञ्जन्ति । यातवे । ऋषीणाम् । सप्त । धीतिऽभिः ॥ ९.६२.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 62; मन्त्र » 17
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ऋषीणाम् सप्त धीतिभिः) यो हि ऋषिभिः “विज्ञानिशिल्पिभिरिति यावत्” रचितः सप्तविधकर्म- परिपूर्णः तथा (त्रिपृष्ठे) उपवेशनस्थानत्रययुक्तः (त्रिवन्धुरे) त्रिषु उच्चैः नीचैः वर्तते (रथे) एवम्भूते रथे (तम्) तं सेनापतिं (यातवे युञ्जन्ति) यात्रार्थं प्रयुञ्जन्ति ॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ऋषीणाम् सप्त धीतिभिः) जो कि ऋषियों अर्थात् विज्ञानी शिल्पियों के द्वारा रचित है तथा सात प्रकार के आकर्षणादि गुणों से संयुक्त है तथा (त्रिपृष्टे) तीन उपवेशन स्थानों से युक्त तथा (त्रिवन्धुरे) तीन जगह ऊँचा नीचा है, (रथे) ऐसे रथ में (तम्) उस सेनापति को (यातवे युञ्जन्ति) यात्रा करने के लिये प्रयुक्त करते हैं ॥१७॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करता है कि हे पुरुषों ! तुम अपने सेनापतिओं के लिये ऐसे यान बनाओ, जो अनन्त प्रकार के आकर्षण-विकर्षणादि गुणों से युक्त हों और जल, स्थल तथा नभमण्डल में सर्वत्रैव अव्याहतगति होकर गमन कर सकें ॥१७॥

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    विषय

    'स्वस्थ सुन्दर' शरीर-रथ

    पदार्थ

    [१] यह शरीर - रथ 'वात-पित्त-कफ' रूप तीन पृष्ठों [आधारों] वाला होने से 'त्रिपृष्ठ ' कहाता है। यह उत्तम 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' रूप स्थिति स्थानोंवाला होने से 'त्रिवन्धुर' कहलाता है, तीन सुन्दर स्थानोंवाला [वन्धुर-beautiful ] । इस (त्रिपृष्ठे) = तीन पृष्ठोंवाले, (त्रिवन्धुरे) = तीन सुन्दर स्थानोंवाले (रथे) = शरीर रथ में (तम्) = उस सोम को (युञ्जन्ति) = युक्त करते हैं। इस सोम को विनष्ट होने से बचाकर शरीर में ही सुरक्षित करते हैं। इसे शरीर रथ में इसलिए सुरक्षित करते हैं कि (यातवे) = इसके द्वारा वे प्रभु की ओर जाने के लिये समर्थ हों। [२] इस सोम को वे (ऋषीणाम्) = मन्त्रद्रष्टाओं की, ज्ञानी पुरुषों की (सप्त धीतिभिः) = [ धीति devotion] सात छन्दों से युक्त वेदवाणियों से होनेवाली उपासनाओं के द्वारा शरीर रथ में युक्त करते हैं । वस्तुतः प्रभु की उपासना ही सोम को शरीर में सुरक्षित करने का प्रमुख साधन है। शरीर में सुरक्षित हुआ-हुआ सोम शरीर - रथ को 'त्रिपृष्ठ व त्रिवन्धुर' बनाता है। यह रथ हमें प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर ले चलता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण द्वारा हम इस शरीर - रथ को दृढ़ व सुन्दर बनायें। सात छन्दों द्वारा होनेवाली उपासनायें ही सोमरक्षण का साधन बनती हैं। ऐसा होने पर यह शरीर रथ हमें प्रभु की ओर ले चलता है ।

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    विषय

    राजा का जैत्ररथ। त्रिबन्धुर रथ की अध्यात्म और राजनीति पक्ष में व्याख्या।

    भावार्थ

    (ऋषीणां सप्त) मन्त्र देखने वाले सात विद्वान् जन (धीतिभिः) उत्तम स्तुतियों और कर्मों से (तं) उस शासक को (रथे) रथ में (यातवे) जाने के लिये अश्व के समान (यातवे) प्रजापीड़क के दमन के लिये (तं) उसको (त्रिपृष्ठे) तीन पीठों वाले और (त्रि-वन्धुरे) तीन बन्धनों से युक्त (रथे) रमणीय, सुदृढ़ राज्य पद पर (युञ्जन्ति) नियुक्त करते हैं। राज्य के ‘तीनपृष्ठ’ अर्थात् पालक पोषक त्र्यवरापरिषत् तीन सदस्य, ‘त्रिवन्धुर’—धनबल, नीति वा प्रभु शक्ति, दण्डशक्ति और मन्त्रशक्ति। अध्यात्म में—‘ऋषीणां सप्त’ सात ऋषि सात प्राण, उसमें तीन पृष्ठ, तीन धातु-वात, पित्त, कफ, तीन बन्धन-शिर, कण्ठ वा नाभि। विराट् देह में तीन पृष्ठ, तीन लोक, तीन बन्धन, तीन गुण, रथ विश्वा उसे योग द्वारा उपलब्ध करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, १०, २३, २५, २८, २९ निचृद् गायत्री। २, ५, ११—१९, २१—२४, २७, ३० गायत्री। ३ ककुम्मती गायत्री। पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २०, २६ विराड् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Him they enjoin to the three-level, triple structural chariot of the nation, with sevenfold intelligence, will and execution of the visionaries of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा हा उपदेश करतो की हे पुरुषांनो! तुम्ही तुमच्या सेनापतीसाठी असे यान बनवा जे अनंत प्रकारच्या आकर्षण विकर्षण इत्यादी गुणांनी युक्त असून जल, स्थल व नभोमंडलात सर्वत्र अव्याहतगतीने गमन करू शकेल. ॥१७॥

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