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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 62/ मन्त्र 27
    ऋषिः - जमदग्निः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तुभ्ये॒मा भुव॑ना कवे महि॒म्ने सो॑म तस्थिरे । तुभ्य॑मर्षन्ति॒ सिन्ध॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तुभ्य॑ । इ॒मा । भुव॑ना । क॒वे॒ । म॒हि॒म्ने । सो॒म॒ । त॒स्थि॒रे॒ । तुभ्य॑म् । अ॒र्ष॒न्ति॒ । सिन्ध॑वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्येमा भुवना कवे महिम्ने सोम तस्थिरे । तुभ्यमर्षन्ति सिन्धवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्य । इमा । भुवना । कवे । महिम्ने । सोम । तस्थिरे । तुभ्यम् । अर्षन्ति । सिन्धवः ॥ ९.६२.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 62; मन्त्र » 27
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (कवे) हे विद्वन् ! (इमा भुवना) अयं लोकः (तुभ्य महिम्ने) भवतो माहात्म्याय (तस्थिरे) ईश्वरद्वारेण स्थितो वर्तते। तथा (सोम) हे सौम्य ! (सिन्धवः) समस्ता नद्यः (तुभ्यम्) भवत उपभोगाय (अर्षन्ति) ईश्वरद्वारा वहन्ति ॥२७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (कवे) हे विद्वन् ! (इमा भुवना) यह लोक (तुभ्य महिम्ने) तुम्हारी ही महिमा के लिये (तस्थिरे) ईश्वर द्वारा स्थित है और (सोम) हे सौम्य ! (सिन्धवः) सब नदियाँ (तुभ्यम् अर्षन्ति) तुम्हारे उपभोग के लिये ही ईश्वर द्वारा स्यन्दमान हो रही हैं ॥२७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा के महत्त्व का वर्णन किया गया है कि अनेक प्रकार के भुवनों की रचना और समुद्रों की रचना उस के महत्त्व का वर्णन करती है अर्थात् सम्पूर्ण प्रकृति के कार्य उसके एकदेश में हैं। परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हो रहा है। अर्थात् परमात्मा अनन्त है और प्रकृति तथा प्रकृति के कार्य सान्त हैं ॥२७॥

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    विषय

    'स्वलोक धारक' सोम

    पदार्थ

    [१] सुरक्षित हुआ हुआ सोम हमें क्रान्तप्रज्ञ बनाता है, सो सोम को ही यहाँ 'कवि' कहा गया है । हे (कवे सोम) = हमें तीव्र बुद्धिवाला बनानेवाले सोम ! इमा भुवना ये सब लोक (तुभ्य महिम्ने) = तेरी महिमा के द्वारा ही (तस्थिरे) = स्थित हैं। शरीर के सब अंग-प्रत्यंग [लोक] इस सोम के द्वारा ही स्वस्थ व सशक्त बने रहते हैं । [२] (तुभ्यम्) = तेरे लिये ही (सिन्धवः) = ज्ञान - समुद्र (अर्षन्ति) = गतिवाले होते हैं। इन सोमकणों के रक्षण से ही सारा ज्ञान का प्रवाह चलता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हे सोम ! तेरी महिमा से ही सब अंग-प्रत्यंग दृढ़ बनते हैं । और तेरी महिमा से ही ज्ञान-समुद्रों का प्रवाह चलता है।

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    विषय

    अन्य प्रजाओं को ज्ञान धनादि से समृद्ध करे।

    भावार्थ

    हे (कवे) मेधाविन् ! विद्वन् ! दूरदर्शिन् ! सब को अतिक्रमण करने हारे ! (तुभ्य महिम्ने) तेरे ही महान् सामर्थ्य को दर्शाने और बढ़ाने के लिये हे (सोम) सर्वशासक ! परमैश्वर्यवन् ! (इमा भुवना तस्थिरे) ये समस्त लोक स्थिर हैं और (तुभ्यम्) तेरे ही लिये (सिन्धवः) ये नद नदीवत् तीव्र वेग से जाने वाले सूर्यादि गण (अर्षन्ति) नियम से चल रहे हैं। इसी प्रकार राजा की महिमा को बढ़ाने के लिये सब अधीनस्थ हों और अश्व आदि उसी के लिये, उसी की आज्ञा में जावें आवें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, १०, २३, २५, २८, २९ निचृद् गायत्री। २, ५, ११—१९, २१—२४, २७, ३० गायत्री। ३ ककुम्मती गायत्री। पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २०, २६ विराड् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, lord of omniscient vision and creation, these world regions of the universe abide in constant steadiness in homage to you, and the seas on earth and in space roll in honour to you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराचे महत्त्व सांगितलेले आहे. त्याने अनेक प्रकारच्या भुवनाची (लोकांची) रचना व समुद्राची रचना केलेली आहे हे त्याचे महत्त्व दर्शवितात. संपूर्ण प्रकृतीचे कार्य त्याच्या एकदेशात आहे. परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण होत आहे. परमात्मा अनंत आहे व प्रकृतीचे कार्य सांत आहे. ॥२७॥

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