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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 62/ मन्त्र 6
    ऋषिः - जमदग्निः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आदी॒मश्वं॒ न हेता॒रोऽशू॑शुभन्न॒मृता॑य । मध्वो॒ रसं॑ सध॒मादे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । ई॒म् । अश्व॑म् । न । हेता॑रः । अशू॑शुभन् । अ॒मृता॑य । मध्वः॑ । रस॑म् । स॒ध॒ऽमादे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदीमश्वं न हेतारोऽशूशुभन्नमृताय । मध्वो रसं सधमादे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत् । ईम् । अश्वम् । न । हेतारः । अशूशुभन् । अमृताय । मध्वः । रसम् । सधऽमादे ॥ ९.६२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 62; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सधमादे) यज्ञस्थलेषु (आत्) आनन्दिते सति (हेतारः) प्रार्थयितृप्रजाः (अश्वन्न) आशु राष्ट्रव्यापकं (मध्वो रसः) मधुरस इवास्वादनीयम् आनन्दं (अमृताय) भूयोऽपि सुगोप्तुं (अशूशुभन्) नुतिपूर्वकं सुभूषयन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सधमादे) यज्ञस्थलों में (आत्) आनन्दित होने के अनन्तर (होतारः) प्रार्थयिता प्रजा लोग (अश्वम् न) शीघ्र ही राष्ट्र भर में व्यापक (मध्वः रसम्) मधुरस के समान आस्वादनीय आनन्द का (अमृताय) फिर भी सुरक्षित होने के लिये (अशूशुभन्) स्तुति द्वारा सुभूषित करते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    जो लोग कर्मकाण्डी बनकर यज्ञ करते हैं, वे लोग अपने शुभ कर्मों से प्रजा को विभूषित करते हैं ॥६॥

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    विषय

    मधुरस का अलंकरण

    पदार्थ

    [१] (आत् ईम्) = अब शीघ्र ही उपासक लोग (सधमादे) = [सद् माद्यन्ति अस्मिन्] यज्ञ में (मध्वः रसम्) = इस जीवन को मधुर बनानेवाले सोम के रस को [सार को] (अशुशुभन्) = शरीर में ही अलंकृत करते हैं, जिससे (अमृताय) = अमृतत्त्व को प्राप्त कर सकें। इस सोम [रस] के शरीर में सुरक्षित होने पर शरीर में रोगों का प्रवेश नहीं होता। परिणामतः हम असमय में मृत्यु को प्राप्त नहीं होते । [२] इस सोम को शरीर में ही सुरक्षित करने का मार्ग यही है कि हम यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहें। इन कर्मों में वस्तुतः हम प्रभु के साथ आनन्द का अनुभव कर रहे होते हैं । यज्ञ प्रवृत्त व्यक्ति सब विषय-वासनाओं से ऊपर उठा हुआ प्रभु के सम्पर्क में होता है । इसीलिए यज्ञ को 'सधमाद' कहा गया है। परिणामतः हम सोम का रक्षण भी करते हैं। वासनायें ही तो इसे विनष्ट करती थीं। शरीर में हम सोम को ऐसे ही शोभित करते हैं, (न) = जैसे कि (होतार:) = अश्वप्रेरक [सारथि] लोग (अश्वम्) = अपने अश्व को । सारथि अश्व को बड़ा ठीक रखता है, इसी प्रकार उपासक सोम को । इसी से तो उसकी जीवनयात्रा बड़ी शोभा के साथ पूर्ण होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम यज्ञों में प्रवृत्त रहकर सोम को शरीर में ही परिशुद्ध रखें।

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    विषय

    उसको सजाने आदि का प्रयोजन, भय से रक्षा।

    भावार्थ

    (आत्) और (हेतारः अश्वं न) जिस प्रकार सारथी लोग अश्व को (अशूशुभन्) शोभित करते हैं उसी प्रकार (अमृताय) मृत्यु के भय को दूर करने के लिये और (सध-मादे) एक साथ मिल कर आनन्द-हर्ष लाभ करने के लिये (मध्वः रसं) ज्ञान के रस के समान ज्ञान के इस उपदेष्टा पुरुष को वा (मध्वः रसम्) शत्रु को पीड़न करने वाले बलवान् सैन्य वा सेनापति को भी (अशूशुभन्) अलंकार, मान-आदर से सुशोभित करते हैं। प्रजा गण परस्पर के हत्या, भय और परस्पर संग के सुखों को प्राप्त करने के लिये रक्षक राजा को नियत अवश्य करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, १०, २३, २५, २८, २९ निचृद् गायत्री। २, ५, ११—१९, २१—२४, २७, ३० गायत्री। ३ ककुम्मती गायत्री। पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २०, २६ विराड् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And this ecstasy of the fruit of active ambition, honey sweet of joint achievement in yajnic action, leading lights of the nation like yajakas exalt and glorify as the progressive sociopolitical order of humanity for permanence and immortal honour.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक कर्मकाण्डी बनून यज्ञ करतात, ते लोक आपल्या शुभ कर्मांने प्रजेला विभूषित करतात. ॥६॥

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