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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 62/ मन्त्र 3
    ऋषिः - जमदग्निः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ककुम्मतीगायत्री स्वरः - षड्जः

    कृ॒ण्वन्तो॒ वरि॑वो॒ गवे॒ऽभ्य॑र्षन्ति सुष्टु॒तिम् । इळा॑म॒स्मभ्यं॑ सं॒यत॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒ण्वन्तः॑ । वरि॑वः । गवे॑ । अ॒भि । अ॒र्ष॒न्ति॒ । सु॒ऽस्तु॒तिम् । इळा॑म् । अ॒स्मभ्य॑म् । स॒म्ऽयत॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृण्वन्तो वरिवो गवेऽभ्यर्षन्ति सुष्टुतिम् । इळामस्मभ्यं संयतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृण्वन्तः । वरिवः । गवे । अभि । अर्षन्ति । सुऽस्तुतिम् । इळाम् । अस्मभ्यम् । सम्ऽयतम् ॥ ९.६२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 62; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (गवे वरिवः कृण्वन्तः) मम गवाद्यर्थं बहुविधपदार्थान् उत्पादयन् अथ च (अस्मभ्यम्) अस्मभ्यं (संयतम्) सुदृढम् (इळाम्) अन्नं सञ्चयन् (सुष्टुतिम्) अस्मत्सुन्दरप्रार्थनां (अभ्यर्षति) दत्तचित्ताः सन्तः शृण्वन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (गवे वरिवः कृण्वन्तः) हमारे गवादिकों के लिये अनेक पदार्थों को उत्पन्न करते हुए और (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (संयतम्) सुदृढ़ (इळाम्) अन्न को संचित करते हुए (सुष्टुतिम्) हमारी सुन्दर प्रार्थना को (अभ्यर्षन्ति) दत्तचित होकर सुनते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जो सेनापति प्रजा के लिये ऐश्वर्य उत्पन्न करता है और प्रजा की प्रार्थनाओं पर ध्यान देता है, वह धर्म का पालन करता हुआ भली-भाँति प्रजाओं की रक्षा करता है ॥३॥

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    विषय

    संयत वाक्

    पदार्थ

    [१] ये सोम (गवे) = हमारी इन्द्रियों के लिये (वरिवः) = वरणीय धनों को (कृण्वन्तः) = करते हुए होते हैं। सदा इन इन्द्रियों को ये उत्तम शक्तिवाला बनाते हैं। ये सोम (सुष्टुतिं अभि अर्षन्ति) = उत्तम स्तुति की ओर चलते हैं। सुरक्षित सोम हमें स्तुति प्रवण बनाते हैं । [२] ये सोम (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (इडाम्) = इस वेदवाणी को संयतम् पूर्णरूप से वशीभूत करते हैं, इस वेदवाणी को हम खूब समझनेवाले बनते हैं। अथवा ये हमारी वाणी को संयत करते हैं, अर्थात् सोम के सुरक्षित होने पर हम (संयत) ] वाक् होते हैं। हमारे मुख से कड़वे शब्द नहीं निकलते ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के तीन लाभ हैं- [क] इन्द्रियों का सशक्त होना, [ख] स्तुति की प्रवृत्ति का उत्पन्न होना, [ग] संयत वाणीवाला बनना ।

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (गवे) भूमि के लिये (वरिवः कृण्वन्तः) उत्तम धन वा सेवा करते हुए (अस्मभ्यं) हमारे लिये (इलाम्) भूमि वा अन्नादि को (सं-यतम् कृण्वन्तः) उत्तम सुप्रबन्ध करते हुए (सु-स्तुतिम् अभि अर्षन्ति) उत्तम स्तुति प्राप्त करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, १०, २३, २५, २८, २९ निचृद् गायत्री। २, ५, ११—१९, २१—२४, २७, ३० गायत्री। ३ ककुम्मती गायत्री। पिपीलिकामध्या गायत्री । ८, २०, २६ विराड् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Creating, collecting and preserving noble wealth and strength and sustenance for us and for our lands and cows and the honour and culture of our tradition, they go on winning appreciation and admiration.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सेनापती प्रजेसाठी ऐश्वर्य उत्पन्न करतो व प्रजेच्या प्रार्थनेकडे लक्ष देतो. तो चांगल्या प्रकारे धर्माचे पालन करत रक्षण करतो. ॥३॥

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