अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 42
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
पा॒पाय॑ वा भ॒द्राय॑ वा॒ पुरु॑षा॒यासु॑राय वा ॥
स्वर सहित पद पाठपा॒पाय॑ । वा॒ । भ॒द्राय॑ । वा॒ । पुरु॑षाय । असु॑राय । वा॒ ॥७.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
पापाय वा भद्राय वा पुरुषायासुराय वा ॥
स्वर रहित पद पाठपापाय । वा । भद्राय । वा । पुरुषाय । असुराय । वा ॥७.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 42
विषय - परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ -
(सः) वह [परमात्मा] (भद्राय) श्रेष्ठ (पुरुषाय) पुरुष के लिये (वा) अवश्य (वि) विविध प्रकार (द्योतते) प्रकाशमान होता है, (सः) वह (पापाय) पापी के लिये (वा) अवश्य (स्तनयति) मेघसमान [भयानक] गरजता है, (सः उ) वही (असुराय) असुर [विद्वानों के विरोधी] के लिये (वा) अवश्य (अश्मानम्) पत्थर (अस्यति) गिराता है ॥४१, ४२॥
भावार्थ - परमेश्वर अपनी न्यायव्यवस्था से श्रेष्ठ धर्मात्माओं को आनन्द और दुष्ट छली कपटी लोगों को कष्ट देता है ॥४१, ४२॥
टिप्पणी -
४१, ४२−(सः) परमेश्वरः (स्तनयति) मेघ इव गर्जयति (सः) (विविधम्) (द्योतते) प्रकाशते (सः) (उ) एव (अश्मानम्) दण्डरूपं प्रस्तरम् (अस्यति) क्षिपति (पापाय) दुष्टाय (वा) अवधारणे (भद्राय) श्रेष्ठाय (वा) (पुरुषाय) मनुष्याय (असुराय) सुराणां विदुषां विरोधिने (वा) ॥