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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    र॒श्मिभि॒र्नभ॒ आभृ॑तं महे॒न्द्र ए॒त्यावृ॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    र॒श्मिऽभि॑: । नभ॑: । आऽभृ॑तम् । म॒हा॒ऽइ॒न्द्र: । ए॒ति॒ । आऽवृ॑त:॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रश्मिभिर्नभ आभृतं महेन्द्र एत्यावृतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रश्मिऽभि: । नभ: । आऽभृतम् । महाऽइन्द्र: । एति । आऽवृत:॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (महेन्द्रः) बड़ा ऐश्वर्यवान् (आवृतः) सब ओर से ढका हुआ [अन्तर्यामी परमेश्वर] (रश्मिभिः) किरणों द्वारा (आभृतम्) सब प्रकार पुष्ट किये हुए (नभः) मेघमण्डल में (एति) व्यापक है ॥२॥

    भावार्थ - अन्तर्यामी परमात्मा के नियम से जल किरणों द्वारा खिंच कर मेघमण्डल में वृष्टि के लिये वर्तमान होता है ॥२॥मन्त्र ३, ४, ५, ६ और ७ के पीछे आवृत्ति का चिह्न गवर्नमेन्ट बुकडिपो बम्बई और वैदिक यन्त्रालय अजमेर के पुस्तकों में दिया है, अर्थात् मन्त्र २ की आवृत्ति मानी है। परन्तु यह चिह्न प० सेवकलालवाले पुस्तक में नहीं है और न कुछ लेख इसके विषय में ग्रिफ़्फिथ साहिब और ह्विटनी साहिब के अनुवाद में है ॥

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