अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 45
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - आसुरी गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
उपो॑ ते॒ बध्वे॒ बद्धा॑नि॒ यदि॒ वासि॒ न्यर्बुदम् ॥
स्वर सहित पद पाठउपो॒ इति॑ । ते॒ । बध्वे॑ । बध्दा॑नि । यदि॑ । वा॒ । असि॑ । निऽअ॑र्बुदम् ॥७.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
उपो ते बध्वे बद्धानि यदि वासि न्यर्बुदम् ॥
स्वर रहित पद पाठउपो इति । ते । बध्वे । बध्दानि । यदि । वा । असि । निऽअर्बुदम् ॥७.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 45
विषय - परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ -
(उपो) और भी (ते) तेरे (वध्वे) नियम में [सब सत्तावाले] (बद्धानि) बँधे हुए हैं, (यदि) क्योंकि तू (वा) अवश्य (न्यर्बुदम्) निरन्तर व्यापक [ब्रह्म] (असि) है ॥४५॥
भावार्थ - परमेश्वर वृष्टि द्वारा सोमलता अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न करके सब प्राणियों का पालन करता हुआ अगणित उपकार करता है, और वह सर्वव्यापक होकर सब संसार को नियम में रखता है ॥४३-४५॥
टिप्पणी -
४५−(उपो) अपि च (ते) तव (बध्वे) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। वध संयमने-वन्। नियमे (बद्धानि) संयतानि सर्वाणि भूतानि (यदि) यतः (वा) अवश्यम् (असि) (न्यर्बुदम्) अ० ८।८।७। अर्व गतौ हिंसने च-उदच्। निरन्तरगतिशीलं व्यापकं ब्रह्म ॥