अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 44
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
तावां॑स्ते मघवन्महि॒मोपो॑ ते त॒न्वः श॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठतावा॑न् । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । म॒हि॒मा । उपो॒ इति॑ । ते॒ । त॒न्व᳡: । श॒तम् ॥७.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
तावांस्ते मघवन्महिमोपो ते तन्वः शतम् ॥
स्वर रहित पद पाठतावान् । ते । मघऽवन् । महिमा । उपो इति । ते । तन्व: । शतम् ॥७.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 44
विषय - परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ -
[उसी से] (मघवन्) हे महाधनी ! [परमेश्वर] (तावान्) उतनी [बड़ी] (ते) तेरी (महिमा) महिमा है, (उपो) और भी (ते) तेरी (तन्वः) उपकार शक्तियाँ (शतम्) सौ [असंख्य] हैं ॥४४॥
भावार्थ - परमेश्वर वृष्टि द्वारा सोमलता अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न करके सब प्राणियों का पालन करता हुआ अगणित उपकार करता है, और वह सर्वव्यापक होकर सब संसार को नियम में रखता है ॥४३-४५॥
टिप्पणी -
४४−(तावान्) तत्परिमाणः (ते) तव (मघवन्) धनवन् (महिमा) महत्त्वम् (उपो) अपि च (ते) तव (तन्वः) तनु विस्तारे उपकारे च-ऊ। उपकृतयः (शतम्) असंख्यातम् ॥