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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 53
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    प्रथो॒ वरो॒ व्यचो॑ लो॒क इति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रथ॑: । वर॑: । व्यच॑: । लो॒क: । इति॑ । त्वा॒ । उप॑ । आ॒स्म॒हे॒ । व॒यम् ॥९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रथो वरो व्यचो लोक इति त्वोपास्महे वयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रथ: । वर: । व्यच: । लोक: । इति । त्वा । उप । आस्महे । वयम् ॥९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 53

    पदार्थ -
    [हे परमात्मन् !] तू (प्रथः) प्रसिद्ध, (वरः) श्रेष्ठ, (व्यचः) यथावत् मिला हुआ [ब्रह्म] और (लोकः) देखने योग्य [ईश्वर] है, (इति) इस प्रकार से (वयम्) हम (त्वा उप आस्महे) तेरी उपासना करते हैं ॥५३॥

    भावार्थ - मनुष्य सुप्रसिद्ध आदि जगदीश्वर की उपासना से अपने को सुप्रसिद्ध, श्रेष्ठ, सर्वसम्बन्धी और दर्शनीय बनावें ॥५३॥

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