अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 28
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
यमब॑ध्ना॒द्बृह॒स्पति॑र्दे॒वेभ्यो॒ असु॑रक्षितिम्। स मा॒यं म॒णिराग॑म॒त्सर्वा॑भि॒र्भूति॑भिः स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अब॑ध्नात् । बृह॒स्पति॑: । दे॒वेभ्य॑: । असु॑रऽक्षितिम् । स: । मा॒ । अ॒यम् । म॒णि: । आ । अ॒ग॒म॒त् । सर्वा॑भि: । भूति॑:ऽभि: । स॒ह ॥६.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
यमबध्नाद्बृहस्पतिर्देवेभ्यो असुरक्षितिम्। स मायं मणिरागमत्सर्वाभिर्भूतिभिः सह ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । अबध्नात् । बृहस्पति: । देवेभ्य: । असुरऽक्षितिम् । स: । मा । अयम् । मणि: । आ । अगमत् । सर्वाभि: । भूति:ऽभि: । सह ॥६.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 28
विषय - ऊर्जया-भूतिभिः
पदार्थ -
१. (बृहस्पतिः) = [मन्त्र २२ में द्रष्टव्य है]२. (सः अयं मणि:) = वह यह मणि (मा) = मुझे (पयसा सह ऊर्जया) = शक्तियों के आप्यायन के साथ बल व प्राणशक्ति के साथ तथा (श्रिया सह) = शोभा के साथ (द्रविणेन) = कार्यसाधक धन के साथ (आगमत्) = प्राप्त हो। (त्विष्या सह तेजसा) = कान्तियुक्त तेज के साथ तथा (कीर्त्या सह) = कीर्ति [fame] के साथ यशसा सौन्दर्य [beauty, splendour] को लेकर, यह मणि मुझे प्राप्त हो तथा यह मणि (सर्वाभि: भूतिभिः सह) = सब ऐश्वयों के साथ मुझे प्राप्त हो।
भावार्थ -
शरीर में सुरक्षित वीर्यमणि हमारे लिए 'शक्तियों के आप्यायन के साथ ऊर्जा को प्रास कराती है. श्री के साथ द्रविण देती है। कान्ति के साथ तेज तथा कीर्ति के साथ यश देनेवाली है। यह सब ऐश्वर्यों को प्राप्त कराती है।
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