अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 30
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
ब्रह्म॑णा॒ तेज॑सा स॒ह प्रति॑ मुञ्चामि मे शि॒वम्। अ॑सप॒त्नः स॑पत्न॒हा स॒पत्ना॒न्मेऽध॑राँ अकः ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑णा । तेज॑सा । स॒ह । प्रति॑ । मु॒ञ्चा॒मि॒ । मे॒ । शि॒वम् । अ॒स॒प॒त्न: । स॒प॒त्न॒ऽहा । स॒ऽपत्ना॑न् । मे॒ । अध॑रान् । अ॒क॒ ॥६.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मणा तेजसा सह प्रति मुञ्चामि मे शिवम्। असपत्नः सपत्नहा सपत्नान्मेऽधराँ अकः ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मणा । तेजसा । सह । प्रति । मुञ्चामि । मे । शिवम् । असपत्न: । सपत्नऽहा । सऽपत्नान् । मे । अधरान् । अक ॥६.३०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 30
विषय - ब्रह्मणा तेजसा
पदार्थ -
१. (तेजसा सह ब्रह्मणा) = तेजस्विता के साथ ज्ञान के हेतु से (मे शिवम्) = मेरे लिए कल्याणकर इस वीर्यमणि को मैं (प्रतिमुञ्चामि) = धारण करता हूँ। यह मणि (असपत्न:) = सपलों [शत्रुओं] से रहित है। इसके धारण करने पर कोई शत्रु हमपर आक्रमण नहीं कर सकता। यह मणि (असपत्न:) = सब शत्रुओं को नष्ट करनेवाली है। यह (मे असपत्न:) = मेरे शत्रुओं को (अधरान् अक:) = पराजित करे-पाँव तले रौंद दे।
भावार्थ -
शरीर में रक्षित वौर्यमणि हमारे शत्रुओं को नष्ट करके हमें तेजस्विता व ज्ञान प्रास कराती है।
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