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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 29
    सूक्त - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त

    तमि॒मं दे॒वता॑ म॒णिं मह्यं॑ ददतु॒ पुष्ट॑ये। अ॑भि॒भुं क्ष॑त्र॒वर्ध॑नं सपत्न॒दम्भ॑नं म॒णिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । इ॒मम् । दे॒वता॑: । म॒णिम् । मह्य॑म् । द॒द॒तु॒ । पुष्ट॑ये । अ॒भि॒ऽभुम् । क्ष॒त्र॒ऽवर्ध॑नम् । स॒प॒त्न॒ऽदम्भ॑नम् । म॒णिम् ॥६.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमिमं देवता मणिं मह्यं ददतु पुष्टये। अभिभुं क्षत्रवर्धनं सपत्नदम्भनं मणिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । इमम् । देवता: । मणिम् । मह्यम् । ददतु । पुष्टये । अभिऽभुम् । क्षत्रऽवर्धनम् । सपत्नऽदम्भनम् । मणिम् ॥६.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 29

    पदार्थ -

    १. (देवता:) = संसार के सूर्य, चन्द्र आदि देव (मह्यम्) = मेरे लिए (तम् इमम् मणिम्) = इस वीर्यमणि को (पुष्टये ददतु) = पुष्टि के लिए प्राप्त कराएँ। सब बाह्य देवों की अनुकूलता हमारे शरीरों में इस मणि का रक्षण करे। २. उस (मणिम्) = मणि को देव हमें दें जोकि (अभिभूम्) = सब रोगों का अभिभव करनेवाली है, (क्षत्रवर्धनम्) = बल को बढ़ानेवाली है तथा (सपत्नदम्भनम्) 'काम, क्रोध, लोभ' रूप शत्रुओं को हिंसित करनेवाली है।

    भावार्थ -

    सूर्य-चन्द्र आदि सब देवों की अनुकूलता हमारे शरीरों में वीर्यमणि का रक्षण करे। यह रोगों को अभिभूत करती है, बल को बढ़ाती है तथा काम, क्रोध, लोभ' रूप शत्रुओं को नष्ट करती है।

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