अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 21
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
तं धा॒ता प्रत्य॑मुञ्चत॒ स भू॒तं व्यकल्पयत्। तेन॒ त्वं द्वि॑ष॒तो ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । धा॒ता । प्रति॑ । अ॒मु॒ञ्च॒त॒ । स: । भू॒तम् । वि । अ॒क॒ल्प॒य॒त् । तेन॑ । त्वम् । द्वि॒ष॒त: । ज॒हि॒ ॥६.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
तं धाता प्रत्यमुञ्चत स भूतं व्यकल्पयत्। तेन त्वं द्विषतो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । धाता । प्रति । अमुञ्चत । स: । भूतम् । वि । अकल्पयत् । तेन । त्वम् । द्विषत: । जहि ॥६.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 21
विषय - धाता
पदार्थ -
१. (तम्) = उस वीर्यमणि को (धाता) = अपनी इन्द्रियों का धारण [स्थिर] करनेवाला व्यक्ति (प्रत्यमुञ्चत) = कवच के रूप में धारण करता है। (स:) = वह सुरक्षित वीर्यमणि (भूतम्) = इस उत्पन्न शरीर को (व्यकल्पयत्) = विशेषरूप से सामर्थ्यवाला बनाता है [क्लप् सामर्थे]। प्रभु कहते है कि हे जीव! (तेन) = इस बीर्यमणि के द्वारा (त्वम्) = तू (द्विषतः जहि) = इन रोगरूप शत्रुओं को नष्ट कर।
भावार्थ -
इन्द्रियों का धारक 'जितेन्द्रिय' पुरुष इस वीर्यमणि को अपना कवच बनाता है। वह उत्पन्न शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग को शक्तिशाली बनाता है। इस वीर्यमणि द्वारा हम रोगों को कुचलते हैं।
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