अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 32
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
यं दे॒वाः पि॒तरो॑ मनु॒ष्या उप॒जीव॑न्ति सर्व॒दा। स मा॒यमधि॑ रोहतु म॒णिः श्रैष्ठ्या॑य मूर्ध॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । दे॒वा: । पि॒तर॑: । म॒नु॒ष्या᳡: । उ॒प॒ऽजीव॑न्ति । स॒र्व॒दा । स: । मा॒ । अ॒यम् । अधि॑ । रो॒ह॒तु॒ । म॒णि: । श्रैष्ठ्या॑य । मू॒र्ध॒त: ॥६.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
यं देवाः पितरो मनुष्या उपजीवन्ति सर्वदा। स मायमधि रोहतु मणिः श्रैष्ठ्याय मूर्धतः ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । देवा: । पितर: । मनुष्या: । उपऽजीवन्ति । सर्वदा । स: । मा । अयम् । अधि । रोहतु । मणि: । श्रैष्ठ्याय । मूर्धत: ॥६.३२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 32
विषय - देव, पितर, मनुष्य
पदार्थ -
१. (यम) = जिस वीर्यमणि को (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष-ब्राह्मण [ज्ञानी], (पितर:) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त क्षत्रिय, (मनुष्या:) = मननपूर्वक व्यवहारों को करनेवाले वैश्य (सर्वदा उप जीवन्ति) = सदा आश्रय करके जीते हैं। यह वीर्यमणि ही तो उन्हें उत्तम 'ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य बनाती है। (स:) = वह (अयं मणि:) = यह वीर्यमणि (मा मुर्धतः अधिरोहतु) = मेरे मस्तिष्क की और आरूढ़ हो इसकी ऊर्ध्वगति होकर यह मेरे मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि का ईधन बने और इसप्रकार यह मेरी (श्रेष्ठयाय) = श्रेष्ठता के लिए हो।
भावार्थ -
शरीर में सुरक्षित वीर्य ही हमें उत्तम 'देव, पितर व मनुष्य' बनाता है। यह मस्तिष्क की ओर आरूढ़ होकर ज्ञानाग्नि का ईधन बने और मुझे श्रेष्ठता प्रदान करे।
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