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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 33
    सूक्त - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त

    यथा॒ बीज॑मु॒र्वरा॑यां कृ॒ष्टे फाले॑न॒ रोह॑ति। ए॒वा मयि॑ प्र॒जा प॒शवोऽन्न॑मन्नं॒ वि रो॑हतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । बीज॑म् । उ॒र्वरा॑याम् । कृ॒ष्टे । फाले॑न । रोह॑ति । ए॒व । मयि॑ । प्र॒ऽजा । प॒शव॑: । अन्न॑म्ऽअन्नम् । वि । रो॒ह॒तु॒ ॥६.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा बीजमुर्वरायां कृष्टे फालेन रोहति। एवा मयि प्रजा पशवोऽन्नमन्नं वि रोहतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । बीजम् । उर्वरायाम् । कृष्टे । फालेन । रोहति । एव । मयि । प्रऽजा । पशव: । अन्नम्ऽअन्नम् । वि । रोहतु ॥६.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 33

    पदार्थ -

    १. (यथा) = जिस प्रकार (उर्वरायाम्) = उर्वरा भूमि में (फालेन कष्टे) = हल के लोहफलक से भूमि के कृष्ट होने पर (बीजं रोहति) = बीज उगता है-फल आदि रूप में वृद्धि को प्राप्त करता है। (एव) = इसी प्रकार इस वीर्यमणि के रक्षण से (मयि) = मुझमें (प्रजा) = सन्तान (पशव:) = गौ आदि पशु व (अन्नं अन्नम्) = खाने योग्य सात्त्विक अन्न (विरोहतु) = विशेषरूप से वृद्धि को प्रास हों।

    भावार्थ -

    वीर्यरक्षण से मैं उत्तम सन्तान, गौ आदि पशुओं व सात्त्विक अन्न को प्राप्त होऊँ।

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