अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
यत्त्वा॑ शि॒क्वः प॒राव॑धी॒त्तक्षा॒ हस्ते॑न॒ वास्या॑। आप॑स्त्वा॒ तस्मा॑ज्जीव॒लाः पु॒नन्तु॒ शुच॑यः॒ शुचि॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । त्वा॒ । शि॒क्व: । प॒रा॒ऽअव॑धीत् । तक्षा॑ । हस्ते॑न । वास्या॑ । आप॑: । त्वा॒ । तस्मा॑त् । जी॒व॒ला: । पु॒नन्तु॑ । शुच॑य: । शुचि॑म् ॥६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्त्वा शिक्वः परावधीत्तक्षा हस्तेन वास्या। आपस्त्वा तस्माज्जीवलाः पुनन्तु शुचयः शुचिम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । त्वा । शिक्व: । पराऽअवधीत् । तक्षा । हस्तेन । वास्या । आप: । त्वा । तस्मात् । जीवला: । पुनन्तु । शुचय: । शुचिम् ॥६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
विषय - 'जीवलाः शुचयः' आप:
पदार्थ -
१. (यत्) = यदि (त्वा) = तुझे (शिक्व:) = छीलनेवाला [शिब् निशाने to make thin] (तक्षा) = बढ़ई (हस्तेन) = हाथ से (वास्या) = बसूले [chisel] से-हाथ में लिये हुए बसूले से-(परा अवधीत्) = बहुत अधिक हिंसित करता है-घाव कर देता है तो भी ये (जीवला:) = जीवन-शक्ति प्रास करानेवाले (शुचय:) = मानस पवित्रता के कारणभूत (आपः) = वीर्यकण [आप: रेतो भूत्वा०] (शुचिं त्वा) = पवित्र मनवाले-हिंसक के प्रति भी विद्वेषशून्य तुझे (तस्मात्) = उस घाव से (पुनन्तु) = पवित्र कर दें-मुक्त कर दें।
भावार्थ -
वीर्यकण शरीर में जीवन-शक्ति को तथा मन में पवित्रता को प्राप्त करानेवाले हैं। यदि कोई बसूले से गहरा घाव भी कर दे, तो भी ये वीर्यकण उस घाव को शीघ्र भर देते हैं और हमारे मनों को आक्रान्ता के प्रति रोषवाला नहीं होने देते।
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