अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
सूक्त - बृहस्पतिः
देवता - फालमणिः, वनस्पतिः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त
हिर॑ण्यस्रग॒यं म॒णिः श्र॒द्धां य॒ज्ञं महो॒ दध॑त्। गृ॒हे व॑सतु॒ नोऽति॑थिः ॥
स्वर सहित पद पाठहिर॑ण्यऽस्रक् । अ॒यम् । म॒णि: । श्र॒ध्दाम् । य॒ज्ञम् । मह॑: । दध॑त् । गृ॒हे । व॒स॒तु॒ । न॒: । अति॑थि: ॥६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यस्रगयं मणिः श्रद्धां यज्ञं महो दधत्। गृहे वसतु नोऽतिथिः ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्यऽस्रक् । अयम् । मणि: । श्रध्दाम् । यज्ञम् । मह: । दधत् । गृहे । वसतु । न: । अतिथि: ॥६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
विषय - हिरण्यस्त्रक' मणि
पदार्थ -
१. शरीर में सुरक्षित (अयं मणिः) = यह वीर्यमणि (हिरण्यस्त्रक्) = हितरमणीय तत्वों को उत्पन्न करनेवाला है [सृज्]। यह (श्रद्धाम्) = हृदय में श्रद्धा को, (यज्ञम्) = हाथों में यज्ञों [श्रेष्ठतम् कर्मों] को, तथा (महः) = शरीर में तेजस्विता को (दधत्) = धारण करता हुआ (अतिथि:) = [अत सातत्यगमने] शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में गतिवाला होता हुआ (नः गृहे) = हमारे शरीरगृह में (वसतु) = निवास करे।
भावार्थ -
यह वीर्यमणि शरीर में सुरक्षित होने पर हितरमणीय तत्त्वों को जन्म देती है। यह हृदय में श्रद्धा, हाथों में यज्ञ तथा शरीर में तेज को स्थापित करती है। प्रभुकृपा से यह हमारे शरीर-गृह में ही, गति करती हुई, निवास करे।
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