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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
    सूक्त - बृहस्पतिः देवता - फालमणिः, वनस्पतिः छन्दः - षट्पदा जगती सूक्तम् - मणि बन्धन सूक्त

    तस्मै॑ घृ॒तं सुरां॒ मध्वन्न॑मन्नं क्षदामहे। स नः॑ पि॒तेव॑ पु॒त्रेभ्यः॒ श्रेयः॑ श्रेयश्चिकित्सतु॒ भूयो॑भूयः॒ श्वःश्वो॑ दे॒वेभ्यो॑ म॒णिरेत्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मै॑ । घृ॒तम् । सुरा॑म् । मधु॑ । अन्न॑म्ऽअन्नम् । क्ष॒दा॒म॒हे॒ । स: । न॒: । पि॒ताऽइ॑व । पु॒त्रेभ्य॑: । श्रेय॑:ऽश्रय: । चि॒कि॒त्स॒तु॒ । भूय॑:ऽभूय: ।‍ श्व:ऽश्व॑: । दे॒वेभ्य॑: । म॒णि: । आ॒ऽइत्य॑ ॥६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्मै घृतं सुरां मध्वन्नमन्नं क्षदामहे। स नः पितेव पुत्रेभ्यः श्रेयः श्रेयश्चिकित्सतु भूयोभूयः श्वःश्वो देवेभ्यो मणिरेत्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मै । घृतम् । सुराम् । मधु । अन्नम्ऽअन्नम् । क्षदामहे । स: । न: । पिताऽइव । पुत्रेभ्य: । श्रेय:ऽश्रय: । चिकित्सतु । भूय:ऽभूय: ।‍ श्व:ऽश्व: । देवेभ्य: । मणि: । आऽइत्य ॥६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (तस्मै) = उस वीर्यमणि के लिए हम (घृतम्) = घृत को (सुराम्) = [अपां च वा एष ओषधीनां च रसो यत्सुरा-श०१२।८।१।४] जल व ओषधियों के रस को, (मधु) = शहद को तथा (अन्नं अन्नम्) = खाने योग्य सात्त्विक अन्न को (क्षदामहे) = [क्षद भक्षणे] खाते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न वीर्यमणि शरीर में सुरक्षित रहता है। २. (स:) = वह (मणिः) = वीर्यमणि (देवेभ्यः) = दिव्य गुणों के विकास के लिए (भूयः भूय:) = अधिकाधिक (श्वःश्व:) = अगले-अगले दिन (एत्य) = प्राप्त होकर (नः) = हमें उसी प्रकार (श्रेयः श्रेयः चिकित्सतु) = उत्तम कल्याणों में निवास कराए, (इव) = जैसे पिता-पिता (पुत्रेभ्य:) = पुत्रों के लिए उत्तम निवास प्राप्त कराता है।

    भावार्थ -

    उत्तम अन्नों द्वारा उत्पन्न वीर्य शरीर में सुरक्षित रहता है। यह हमें उसी प्रकार कल्याण में निवास कराता है जैसे पिता पुत्रों को। सुरक्षित हुआ-हुआ वीर्य हमारे अन्दर दिव्य गुणों का वर्धन करता है।

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