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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    आ घा॒ ताग॑च्छा॒नुत्त॑रा यु॒गानि॒ यत्र॑ जा॒मयः॑ कृ॒णव॒न्नजा॑मि। उप॑ बर्बृहि वृष॒भाय॑बा॒हुम॒न्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । घ॒ । ता । ग॒च्छा॒न् । उत्ऽत॑रा । यु॒गानि॑ । यत्र॑ । जा॒मय॑: । कृ॒णव॑न् । अजा॑मि । उप॑ । ब॒र्बृ॒ही॒ । वृ॒ष॒भाय॑ । बा॒हुम् । अ॒न्यम् । इ॒च्छ॒स्व॒ । सु॒ऽभ॒गे॒ । पति॑म् । मत् ॥१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ घा तागच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि। उप बर्बृहि वृषभायबाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । घ । ता । गच्छान् । उत्ऽतरा । युगानि । यत्र । जामय: । कृणवन् । अजामि । उप । बर्बृही । वृषभाय । बाहुम् । अन्यम् । इच्छस्व । सुऽभगे । पतिम् । मत् ॥१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    १. यम चाहता है कि (घा) = निश्चय से (ता) = वे (उत्तरा युगानि) = उत्कृष्ट युग-समय (आगच्छान्) = आएँ (यत्र) = जहाँ (जामयः) = बहिनें (अजामि) = [अभ्रातरम्] न भाई को ही, न रिश्तेदार को ही, अर्थात् सुदूर गोत्रवाले को ही (कृणवन्) = पतिरूपेण स्वीकार करें। वस्तुत: सुदूर सम्बन्धों से ही उत्कृष्ट सन्तानों का निर्माण होता है। तभी एक समाज उत्कृष्ट युग में पहुँचता है। २. हे यमि! तू (वृषभाय) = एक शक्तिशाली श्रेष्ठ पुरुष के लिए (बाहुम्) = अपनी भुजा को (उपबर्बहि) = उपबर्हण व तकिया बनानेवाली हो, अर्थात् उस श्रेष्ठ पुरुष के साथ तेरा सम्बन्ध प्रेमपूर्ण हो। हे सुभगे उत्तम भाग्यवाली! (मत् अन्यम्) = मुझसे भिन्न विलक्षण पुरुष को ही (पतिम्) = पति के रूप में (इच्छस्व) = चाहनेवाली हो।

    भावार्थ - सुदुर सम्बन्ध में ही सौभाग्य व सौन्दर्य है। यह सुदुर सम्बन्ध ही एक राष्ट्र में उत्कृष्ट युग को लाने का कारण बनता है।

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