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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 33
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    किं स्वि॑न्नो॒राजा॑ जगृहे॒ कद॒स्याति॑ व्र॒तं च॑कृमा॒ को वि वे॑द। मि॒त्रश्चि॒द्धि ष्मा॑जुहुरा॒णो दे॒वाञ्छ्लोको॒ न या॒तामपि॒ वाजो॒ अस्ति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । स्वि॒त् । न॒: । राजा॑ । ज॒गृ॒हे॒ । कत् । अ॒स्य॒ । अति॑ । व्र॒तम् । च॒कृ॒म॒ । क: । वि । वे॒द॒ । मि॒त्र: । चि॒त् । हि । स्म॒ । जु॒हु॒रा॒ण: । दे॒वान् । श्लोक॑: । न । या॒ताम् । अपि॑ । वाज॑: । अस्ति॑ ॥१.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किं स्विन्नोराजा जगृहे कदस्याति व्रतं चकृमा को वि वेद। मित्रश्चिद्धि ष्माजुहुराणो देवाञ्छ्लोको न यातामपि वाजो अस्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । स्वित् । न: । राजा । जगृहे । कत् । अस्य । अति । व्रतम् । चकृम । क: । वि । वेद । मित्र: । चित् । हि । स्म । जुहुराण: । देवान् । श्लोक: । न । याताम् । अपि । वाज: । अस्ति ॥१.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 33

    पदार्थ -
    १. यह (राजा) = देदीप्यमान [राज् दीप्तौ] ब्रह्माण्ड का शासक [Regulate करनेवाला] (किंस्वित्) = भला क्या (न:) = हमारा (जगृहे) = ग्रहण करेगा! जैसे पिता पुत्र को गोद में लेता है, उसी प्रकार क्या वे प्रभु हमें गोद में लेंगे? (कत्) = कब (अस्य) = इस प्रभु के (अतिव्रतं चकृम) = तीव्र व्रतों को हम कर पाएंगे, अर्थात् उस पिता प्रभु की प्राप्ति के लिए साधनाभूत (महान् यम) = नियम आदि व्रतों को हम कब पूर्ण तथा पालन कर सकेंगे? इन बातों को (कः विवेद) = वे अनिर्वचनीय प्रभु ही जानते हैं। हमारे कर्म प्रभु-प्राप्ति के योग्य कब होंगे?' यह बात तो प्रभु केही ज्ञान का विषय हो सकती है। ज्यों ही हमारे कर्म उस योग्यता के होंगे, त्यों ही प्रभु हमें अपनी गोद में अवश्य ग्रहण करेंगे। २. वे प्रभु (चित् हि ष्मा) = निश्चय से (मित्र:) = मृत्यु व रोगों से बचानेवाले हैं [प्रमीते: त्रयाते] और (देवान्) = देववृत्तिवाले लोगों को (जहराण:) = स्नेहपूर्वक अपने समीप बुलानेवाले हैं [स्निग्धम् आहादयमान:-सा०]। जब हम देव बनते हैं तब हमें उस पिता का स्नेह प्राप्त होता ही है। देव बनने के इस मार्ग पर चलने पर न [संप्रति]-अब भी (याताम्) = गतिशील हम लोगों का (श्लोकः) = यश और (वाजः अपि) = बल भी (अस्ति) = होता ही है। इस यशस्वी बल के द्वारा आगे बढ़ते हुए हम देव बनते हैं और देव बनकर महादेव की गोद में आसीन होते हैं।

    भावार्थ - हम देव बनकर प्रभु के स्नेह के पात्र हों। गतिशील बनकर यशस्वी बलवाले हों।

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