अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
को अ॒द्ययु॑ङ्क्ते धु॒रि गा ऋ॒तस्य॒ शिमी॑वतो भा॒मिनो॑ दुर्हृणा॒यून्।आ॒सन्नि॑षून्हृ॒त्स्वसो॑ मयो॒भून्य ए॑षां भृ॒त्यामृ॒णध॒त्स जी॑वात् ॥
स्वर सहित पद पाठक: । अ॒द्य । युङ्क्ते॒ । धु॒रि । गा: । ऋ॒तस्य॑ । शिमी॑ऽवत: । भा॒मिन॑: । दु॒:ऽहृ॒णा॒यून् । आ॒सन्ऽइ॑षून् । हृ॒त्सु॒ऽअस॑: । म॒य॒:ऽभून् । य: । ए॒षा॒म् । भृ॒त्याम् । ऋ॒णध॑त् । स: । जी॒वा॒त् ॥१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
को अद्ययुङ्क्ते धुरि गा ऋतस्य शिमीवतो भामिनो दुर्हृणायून्।आसन्निषून्हृत्स्वसो मयोभून्य एषां भृत्यामृणधत्स जीवात् ॥
स्वर रहित पद पाठक: । अद्य । युङ्क्ते । धुरि । गा: । ऋतस्य । शिमीऽवत: । भामिन: । दु:ऽहृणायून् । आसन्ऽइषून् । हृत्सुऽअस: । मय:ऽभून् । य: । एषाम् । भृत्याम् । ऋणधत् । स: । जीवात् ॥१.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
विषय - ज्ञानोज्ज्वल जीवन
पदार्थ -
१. यम कहता है कि (क:) = वे आनन्दमय प्रभु (अद्य) = आज इस मानवदेह में (ऋतस्य धुरि) = यज्ञ के निर्वाह में यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त कराने के लिए (गा:) = युङ्क्ते ज्ञान की वाणियों को हमारे साथ जोड़ते हैं। ये ज्ञान की वाणियाँ (शिमीवत:) = कर्मवाली हैं-इनमें कर्मों का उपदेश दिया गया है। (भामिनः) = सत्यज्ञान के द्वारा उत्तम कर्म कराती हुई ये वाणियाँ हमें तेजस्वी बनाती हैं। (दुर्हृणायून्) = यह [हणीयतििितकर्म हातुमशक्यम्] छोड़ने योग्य नहीं है। स्वाध्याय नित्यकर्त्तव्य होने से इनका छोड़ना सम्भव नहीं। (आसन् इषून्) = मुख से उच्चारित हुई ये वाणियाँ शत्रुओं का संहार करनेवाली है-इषु तुल्य हैं। (हृत्स्वस:) = [अस् कान्तौ] हृदयों में चमकनेवाली हैं। (मयोभून्) = ये कल्याण का भावन करनेवाली हैं। २. (यः) = जो भी व्यक्ति (एषाम्) = इन ज्ञानवचनों के (भृत्याम् ऋणधत्) = भाव को समृद्ध करता है, अर्थात् इन वचनों को अधिक-से-अधिक धारण करता है, (सः जीवात्) = वह ही वस्तुत: जीता है-सुन्दर जीवनवाला होता है। ज्ञानोज्ज्वल जीवन ही जीवन है।
भावार्थ - हमें प्रभुप्रदत्त ज्ञान की वाणियों को धारण करके उज्ज्वल जीवनवाला बनने का प्रयत्न करना चाहिए। भोग-विलास की बातों में समय को नष्ट न करना चाहिए।
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