अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
त्रीणि॒छन्दां॑सि क॒वयो॒ वि ये॑तिरे पुरु॒रूपं॑ दर्श॒तं वि॒श्वच॑क्षणम्। आपो॒ वाता॒ओष॑धय॒स्तान्येक॑स्मि॒न्भुव॑न॒ आर्पि॑तानि ॥
स्वर सहित पद पाठत्रीणि॑ । छन्दां॑सि । क॒वय॑: । वि । ये॒ति॒रे॒ । पु॒रु॒ऽरूप॑म् । द॒र्श॒तम् । वि॒श्वऽच॑क्षणम् । आप॑: । वाता॑: । ओष॑धय: । तानि॑ । एक॑स्मिन् । भुव॑ने । आर्पि॑तानि ॥१.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रीणिछन्दांसि कवयो वि येतिरे पुरुरूपं दर्शतं विश्वचक्षणम्। आपो वाताओषधयस्तान्येकस्मिन्भुवन आर्पितानि ॥
स्वर रहित पद पाठत्रीणि । छन्दांसि । कवय: । वि । येतिरे । पुरुऽरूपम् । दर्शतम् । विश्वऽचक्षणम् । आप: । वाता: । ओषधय: । तानि । एकस्मिन् । भुवने । आर्पितानि ॥१.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 17
विषय - आपः, वाताः, ओषधयः
पदार्थ -
१. (कवयः) = ज्ञानीपुरुष, क्रान्तदर्शी पुरुष-तत्त्व तक पहुँचनेवाले पुरुष उस (पुरुरूपम्) = अनन्त रूपों को उत्पन्न करनेवाले [पुरूणि रूपाणि यस्मात्] (दर्शतम्) = दर्शनीय (विश्वचक्षणम्) = सर्वद्रष्टा-सभी का ध्यान [पालन] करनेवाले प्रभु से (त्रीणि छन्दांसि) = तीन [छन्दांसि छादनात] रक्षणात्मक वस्तुओं को (वियेतिरे) = विशेषरूप से चाहते हैं [Long for]| वे वस्तुएँ हैं (आप:) = जल, (वाता:) = वायु तथा (ओषधयः) = ओषधियाँ। पीने के लिए जल, श्वास लेने के लिए वायु तथा भोजन के लिए ओषधियाँ [वनस्पतियों]। २. (तानि) = वे तीनों वस्तुएँ (एकस्मिन् भुवने) = एक ही भुवन में (आर्पितानि) = प्रभु द्वारा सृष्टि के प्रारम्भ में स्थापित की गई हैं। किसी भुवन के व्यक्ति को इनमें से किसी वस्तु के लिए लोकान्तर में नहीं जाना पड़ता। अपने ही भुवन में उसे ये सब सुलभ होती हैं।
भावार्थ - ज्ञानी पुरुष प्रभु से 'जल, वायु व ओषधियाँ' इन तीन वस्तुओं को ही मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए चाहते हैं। वस्त्र भी रुई से ही प्राप्त हो जाते हैं। प्रभु ने इन तीनों वस्तुओं को प्रत्येक भुवन में स्थापित किया है। इन्हीं से लोकनिर्वाह होता है।
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