अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 58
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अङ्गि॑रसो नःपि॒तरो॒ नव॑ग्वा॒ अथ॑र्वाणो॒ भृग॑वः सो॒म्यासः॑। तेषां॑ व॒यं सु॑म॒तौय॒ज्ञिया॑ना॒मपि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म ॥
स्वर सहित पद पाठअङ्गि॑रस: । न॒: । पि॒तर॑: । नव॑ऽग्वा: । अथ॑र्वाण: । भृग॑व: । सो॒म्यास॑: । तेषा॑म् । व॒यम् । सु॒ऽम॒तौ । य॒ज्ञिया॑नाम् । अपि॑। भ॒द्रे । सौ॒म॒न॒से । स्या॒म॒ ॥१.५८॥
स्वर रहित मन्त्र
अङ्गिरसो नःपितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगवः सोम्यासः। तेषां वयं सुमतौयज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठअङ्गिरस: । न: । पितर: । नवऽग्वा: । अथर्वाण: । भृगव: । सोम्यास: । तेषाम् । वयम् । सुऽमतौ । यज्ञियानाम् । अपि। भद्रे । सौमनसे । स्याम ॥१.५८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 58
विषय - समति व सौमनस
पदार्थ -
१. (न:) = हमारे (पितरः) = पालन करनेवाले [Guardians] (अङ्गिरस:) = [अगि गतौ] अत्यन्त गतिशील व क्रियामय जीवनवाले हैं, अतएव अंग-अंग में रसवाले हैं।( नवग्वा) = वे स्तुत्य गतिवाले हैं [नु स्तुतौ] और [नव गु] अतएव नब्बे वर्ष के दीर्घजीवन तक पहुँचनेवाले हैं। (अथर्वाण:) = [अथ अर्वाङ्] सदा आत्मनिरीक्षण करते हुए ये [अ-थर्व] स्थिर वृत्तिवाले हैं विषयों से इनके मन डाँवाडोल नहीं हो जाते। (भृगव:) = [भ्रस्ज पाके] इन्होंने ज्ञानाग्नि से अपने को परिपक्व किया है, अतएव (सोम्यास:) = अत्यन्त सौम्य व विनीत है। २. (तेषाम) = इन (यज्ञियानाम्) = संगतिकरण योग्य पितरों की (सुमतौ) = कल्याणी मति में तथा भद्रे (सौमनसे) = प्रशस्त [कल्याणकर] उत्तम मन में वयं अपि (स्याम) = हम भी हों, अर्थात् इन पितरों के संग में उनकी सत्प्रेरणाओं से हमें भी 'समति व भद्र सौमनस' प्राप्त हो। ये पितर अन्नमयकोश में 'अङ्गिरस' हैं-अंग-अंग में रस व शक्तिवाले हैं। प्राणमयकोश में प्रत्येक इन्द्रिय की प्रशंसनीय गतिवाले 'नवग्व' हैं। मनोमयकोश में 'अथर्व' न डाँवाडोल वृत्तिवाले हैं। विज्ञानमयकोश में 'भूग' व परिपक्व ज्ञानवाले हैं और आनन्दमयकोश में अत्यन्त 'सौम्य' हैं-उस सोम [शान्त प्रभु] के साथ निवास करनेवाले हैं।
भावार्थ - हम अङ्गिरस-नवग्व-अथर्वा-भृगु व सौम्य' पितरों के सम्पर्क में आकर इनकी 'सुमति व भद्र सौमनस' को प्राप्त करके इन-जैसे ही बनें।
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