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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    रात्री॑भिरस्मा॒अह॑भिर्दशस्ये॒त्सूर्य॑स्य॒ चक्षु॒र्मुहु॒रुन्मि॑मीयात्। दि॒वा पृ॑थि॒व्यामि॑थु॒ना सब॑न्धू य॒मीर्य॒मस्य॑ विवृहा॒दजा॑मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रात्री॑भि: । अ॒स्मै॒ । अह॑ऽभि: । द॒श॒स्ये॒त् । सूर्य॑स्य । चक्षु॑: । मुहु॑: । उत् । मि॒मी॒या॒त् । दि॒वा । पृ॒थि॒व्या । मि॒थु॒ना । सब॑न्धू॒ इति॒ सऽब॑न्धू । य॒मी: । य॒मस्य॑ । वि॒वृ॒हा॒त् । अजा॑मि ॥१.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रात्रीभिरस्माअहभिर्दशस्येत्सूर्यस्य चक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात्। दिवा पृथिव्यामिथुना सबन्धू यमीर्यमस्य विवृहादजामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रात्रीभि: । अस्मै । अहऽभि: । दशस्येत् । सूर्यस्य । चक्षु: । मुहु: । उत् । मिमीयात् । दिवा । पृथिव्या । मिथुना । सबन्धू इति सऽबन्धू । यमी: । यमस्य । विवृहात् । अजामि ॥१.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    १. यम चाहता है कि उसकी बहिन [मद् अन्येन] उससे भिन्न जिस भी पुरुष को पति रूप में प्राप्त करे (रात्रीभिः अहभिः) = रात-दिन (अस्मा) = अपने इस पति के लिए (दशास्येत्) = आराम देने की इच्छा करें। उसकी बहिन व बहिन के पति पर (सूर्यस्य चक्षुः) = सूर्य की आँख (मुहुः) = बारम्बार (उन्मिमीयात्) = खुले, अर्थात् इनका जीवन दीर्घ हो। २. जैसे (दिवा पृथिव्या) = द्युलोक पृथिवीलोक के साथ मिथुना सबन्धू-परस्पर साथ-साथ समान बन्धुत्ववाले होते हैं, उसीप्रकार ये भी बन्धुत्ववाले हों। द्युलोक व पृथिवीलोक कितने दूर-दूर हैं। इसीप्रकार यम चाहता है कि उसकी बहिन व उसके भावी पति भी सुदूर स्थितिवाले हों। (यमी:) = संयत जीवनवाली मेरी बहिन (यमस्य) = मुझ यम के (अजामि) = [अभ्रातरम्] असम्बद्ध व्यक्ति को, अर्थात् किसी सुदूर गोत्रवाले को ही विवृहात्-बढ़ानेवाली हो-उसी के वंश की वृद्धि करनेवाली बने।

    भावार्थ - पत्नी दिन-रात पति के सुख का ध्यान करे। परस्पर मेल व प्रेम से ये पति पत्नी दीर्घजीवी हों। युलोक व प्रथिवीलोक जिस प्रकार परस्पर दूरी पर हैं, इसीप्रकार दुरस्थ पुरुष ही पति-पत्नी सम्बन्धवाले बनें, भिन्न गोत्रों में ही सम्बन्ध हो।

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