अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 48
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
स्वा॒दुष्किला॒यंमधु॑माँ उ॒तायं ती॒व्रः किला॒यं रस॑वाँ उ॒तायम्। उ॒तो न्वस्यप॑पि॒वांस॒मिन्द्रं॒ न कश्च॒न स॑हत आह॒वेषु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्वा॒दु: । किल॑ । अ॒यम् । मधु॑ऽमान् । उ॒त । अ॒यम् । ती॒व्र: । किल॑ । अ॒यम् । रस॑ऽवान् । उ॒त । अ॒यम् । उ॒तो इति॑ । नु । अ॒स्य॒ । प॒पि॒ऽवांस॑म् । इन्द्र॑म् । न । क: । च॒न । स॒ह॒ते॒ । आ॒ऽह॒वेषु॑ ॥१.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वादुष्किलायंमधुमाँ उतायं तीव्रः किलायं रसवाँ उतायम्। उतो न्वस्यपपिवांसमिन्द्रं न कश्चन सहत आहवेषु ॥
स्वर रहित पद पाठस्वादु: । किल । अयम् । मधुऽमान् । उत । अयम् । तीव्र: । किल । अयम् । रसऽवान् । उत । अयम् । उतो इति । नु । अस्य । पपिऽवांसम् । इन्द्रम् । न । क: । चन । सहते । आऽहवेषु ॥१.४८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 48
विषय - 'स्वादु-मधुमान्-तीव्र व रसवान्' सोम
पदार्थ -
१. (किल) = निश्चय से (अयम्) = यह सोम शरीर में ही व्याप्त किया जाने पर (स्वादु) = वाणी को स्वादवाला बनाता है [बाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु]। सोमी पुरुष कभी कड़वी वाणी नहीं बोलता। (उत्) = और (अयम्) = यह (मधुमान्) = जीवन को मधुर बनानेवाला है। सोमरक्षण होने पर हमारी सब क्रियाएँ माधुर्य को लिये हुए होती हैं। किल-निश्चय से (अयम्) = यह तीव्र:-बड़ा तीन है रोगरूप शत्रुओं के लिए भयंकर है। (उत) = और (अयम्) = यह (रसवान्) = अंग-प्रत्यंग को रसवाला बनाता है। रोगों को दूर करके यह हमें स्वस्थ व सबल शरीरवाला करता है। २. (उत् उ) = और निश्चय से (अस्य पपिवांसम्) = इस सोम का पान करनेवाले (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (आहवेषु) = संग्रामों में कश्चन कोई भी (न सहते) = पराभूत नहीं कर पाता। न इसपर कोई रोग आक्रमण कर पाता है और न ही कोई वासना इसे दवा पाती है।
भावार्थ - शरीर में सोम का रक्षण करनेवाला पुरुष 'मधुरवाणीवाला, मधुर व्यवहारवाला, नीरोग व अंग-प्रत्यंग में रसवाला' बनता है। इसे न रोग आक्रान्त कर पाते हैं, न वासना दबा पाती है।
इस भाष्य को एडिट करें