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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 30
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    दे॒वोदे॒वान्प॑रि॒भूरृ॒तेन॒ वहा॑ नो ह॒व्यं प्र॑थ॒मश्चि॑कि॒त्वान्। धू॒मके॑तुःस॒मिधा भाऋजीको म॒न्द्रो होता॒ नित्यो॑ वा॒चा यजी॑यान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒व: । दे॒वान् । प॒रि॒ऽभू: । ऋ॒तेन॑ । वह॑ । न॒: । ह॒व्यम् । प्र॒थ॒म: । चि॒कि॒त्वान् । धू॒मऽके॑तु: । स॒म्ऽइधा॑ । भा:ऽऋ॑जीक: । म॒न्द्र: । होता॑ । नित्य॑: । वा॒चा । यजी॑यान् ॥१.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवोदेवान्परिभूरृतेन वहा नो हव्यं प्रथमश्चिकित्वान्। धूमकेतुःसमिधा भाऋजीको मन्द्रो होता नित्यो वाचा यजीयान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देव: । देवान् । परिऽभू: । ऋतेन । वह । न: । हव्यम् । प्रथम: । चिकित्वान् । धूमऽकेतु: । सम्ऽइधा । भा:ऽऋजीक: । मन्द्र: । होता । नित्य: । वाचा । यजीयान् ॥१.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 30

    पदार्थ -
    १. प्रभु ऋत व सत्य का पालन करनेवाले जीव से कहते हैं कि (देव:) = देववृत्तिवाला तू (तेन) = यज्ञ के पालन से (देवान् परिभूः) = सब दिव्यगुणों को शरीर में चतुर्दिक भावित करनेवाला हो। तेरे शरीर में यथास्थान उस-उस देवता की स्थिति हो। तू (प्रथमः) = शरीर व मस्तिष्क को उत्तम बनानेवालों में सर्वाग्रणी व (चिकित्वान्) = समझदार होता हुआ (नः) = हमारे (हव्यम्) = हव्य को वहा-वहन करनेवाला हो, अर्थात् तेरा जीवन यज्ञमय हो-त सदा यज्ञशेष का सेवन करनेवाला बन। २. (धूमकेतः) = ज्ञान के द्वारा वासनाओं को कम्पित करके अपने से दूर करनेवाला तू बन। (समिधा भाञ्जीक:) = ज्ञान की दीप्ति से दीप्ति का अर्जन करनेवाला तू हो। (मन्द्रः) = तेरा जीवन सदा प्रसन्नतापूर्ण हो। (नित्यः होता) = तू सदा देनेवाला बन। जितना हम देते हैं-त्याग करते हैं, उतना ही तो जीवन आनन्दमय बनता है। वाचा (यजीयान्) = ज्ञान की वाणी से तू उस प्रभु का पूजन करनेवाला बन । अथवा ज्ञान की वाणियों से संग करनेवाला बन-सदा स्वाध्यायशील हो।

    भावार्थ - प्रभु का आदेश है कि हे जीव! तू दिव्यगुणों को धारण कर, यज्ञशील हो, ज्ञान के द्वारा वासनाओं को कम्पित करनेवाला हो, ऋजु, दीप्त, सदा प्रसन्न, नित्य होता व स्वाध्यायशील बना |

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