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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 42
    सूक्त - सरस्वती देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    सर॑स्वतींपि॒तरो॑ हवन्ते दक्षि॒ना य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः। आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑मादयध्वमनमी॒वा इष॒ आ धे॑ह्य॒स्मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर॑स्वतीम् । पि॒तर॑: । ह॒व॒न्ते॒ । द॒क्षि॒णा । य॒ज्ञम् । अ॒भि॒ऽनक्ष॑माणा: । आ॒ऽसद्य॑ । अ॒स्मिन् । ब॒र्हिषि॑ । मा॒द॒य॒ध्व॒म् । अ॒न॒मी॒वा: । इष॑: । आ । धे॒हि॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥१.४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरस्वतींपितरो हवन्ते दक्षिना यज्ञमभिनक्षमाणाः। आसद्यास्मिन्बर्हिषिमादयध्वमनमीवा इष आ धेह्यस्मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सरस्वतीम् । पितर: । हवन्ते । दक्षिणा । यज्ञम् । अभिऽनक्षमाणा: । आऽसद्य । अस्मिन् । बर्हिषि । मादयध्वम् । अनमीवा: । इष: । आ । धेहि । अस्मे इति ॥१.४२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 42

    पदार्थ -
    १. (सरस्वतीम्) = इस ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता को (पितर:) = रक्षणात्मक कार्यों में व्याप्त पिता (हवन्ते) = पुकारते हैं। यह ज्ञाररुचि ही उन्हें पवित्र जीवनवाला बनाकर अपने कार्य को सुचारु रूप से करने में समर्थ करती है। (दक्षिणा) = [दक्ष् to grow] उन्नति व विकास के हेतु से (यज्ञम् अभिनक्षमाणा:) = [यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म] श्रेष्ठतम कर्मों को प्राप्त होते हुए लोग इस सरस्वती को ही पुकारते हैं। सरस्वती ही तो उन्हें इन यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त करके उन्नत करती है। २. हे पुरुषो! तुम (अस्मिन् बर्हिषि) = [बृहि वृद्धी] इस वृद्धि के निमित्तभूत सरस्वती के आराधन में (आसद्य) = आसीन होकर (मादयध्वम्) = आनन्द का अनुभव करो। स्वाध्याय में तुम्हें रस की प्रतीति हो। हे सरस्वति । तू (अस्मे) = हमारे लिए (अनमीवा:) = व्याधिरहित (इषः) = अन्नों को (आधेहि) = स्थापित कर। राजस् अन्न [दुःखशोकामयप्रदाः] ही रोगों का कारण बनते हैं। उन्हें न ग्रहण करके हम सात्त्विक अनों का ही सेवन करें। यह सात्विक अन्न का सेवन हमारी बुद्धि की वृद्धि करता हुआ हमें और अधिक सरस्वती का आराधक बनाएगा।

    भावार्थ - सरस्वती की आराधना हमें रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त करती है [पितरः], यह हमें श्रेष्ठतम कर्मों की ओर ले-जाती है [यज्ञम्], यही वृद्धि का निमित्त बनती है [बर्हिषि], अत: हम सात्त्विक अन्नों का सेवन करते हुए तीन बुद्धि बनें और सरस्वती के आराधक हों।

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