अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 60
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
इ॒मं य॑मप्रस्त॒रमा हि रोहाङ्गि॑रोभिः पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः। आ त्वा॒ मन्त्राः॑कविश॒स्ता व॑हन्त्वे॒ना रा॑जन्ह॒विषो॑ मादयस्व ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । य॒म॒ । प्र॒ऽस्त॒रम् । आ । हि । रोह॑ । अङ्गि॑र:ऽभि: । पि॒तृऽभि॑: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । आ । त्वा॒ । मन्त्रा॑: । क॒वि॒ऽश॒स्ता: । व॒ह॒न्तु॒ । ए॒ना । रा॒ज॒न् । ह॒विष॑: । मा॒द॒य॒स्व॒ ॥१.६०॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं यमप्रस्तरमा हि रोहाङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः। आ त्वा मन्त्राःकविशस्ता वहन्त्वेना राजन्हविषो मादयस्व ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । यम । प्रऽस्तरम् । आ । हि । रोह । अङ्गिर:ऽभि: । पितृऽभि: । सम्ऽविदान: । आ । त्वा । मन्त्रा: । कविऽशस्ता: । वहन्तु । एना । राजन् । हविष: । मादयस्व ॥१.६०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 60
विषय - यम का प्रसार
पदार्थ -
१. हे (यम) = संयमी पुरुष ! (हि) = निश्चय से (इमं प्रस्तरम्) = इस पत्थर के समान दृढ शरीर में (आरोह) = तू आरोहण कर । इस शरीर में स्थित होता हुआ तू उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़नेवाला हो। शरीर को दृढ़ बनाने के साथ तु अपनी मानस व बौद्धिक उन्नति के लिए (अङ्गिरोभिः) = [अगि गतौ] गतिशील जीवनवाले (पितृभिः) = पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त व्यक्तियों से (संविदान:) = मिलकर ज्ञान की चर्चा करनेवाला बन। इन गतिशील व पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त लोगों के सम्पर्क में तू भी वैसा ही बनेगा। २. अब (त्वा) = तुझे (कविशस्ता:) = उस महान् कवि प्रभु से उपदिष्ट (मन्त्रा:) = ज्ञान की बाणियाँ (आवहन्तु) = जीवन के मार्ग में सर्वत्र ले-चलनेवाली हों। 'मन्त्रश्नुत्यं चरामसि' जैसा तू इन वेदों में अपने कर्तव्यों को सुनता है, वैसा ही करनेवाला बन। हे (राजन्) = इन वेदवाणियों के अनुसार व्यवस्थित जीवनवाले [Regulated] पुरुष। तू (एना) = इस (हविष:) = हवि के द्वारा ही (मादयस्व) = आनन्द का अनुभव कर। तुझे यज्ञशेष के सेवन में आनन्द आये।
भावार्थ - संयम से हम शरीर को पत्थर के समान दृढ़ बनाएँ। गतिशील व रक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त लोगों के साथ हमारा संग हो। वेदज्ञान के अनुसार हम जीवन को बनाएँ। हवि के सेवन में ही आनन्द का अनुभव करें।
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