अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अन्व॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒दन्वहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः। अनु॒ सूर्य॑ उ॒षसो॒अनु॑ र॒श्मीननु॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ वि॑वेश ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । अ॒ग्नि: । उ॒षसा॑म् । अग्र॑म् । अ॒ख्य॒त् । अनु॑ । अहा॑नि । प्र॒थ॒म: । जा॒तऽवे॑दा: । अनु॑ । सूर्य॑: । उ॒षस॑: । अनु॑ । र॒श्मीन् । अनु॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥१.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो जातवेदाः। अनु सूर्य उषसोअनु रश्मीननु द्यावापृथिवी आ विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । अग्नि: । उषसाम् । अग्रम् । अख्यत् । अनु । अहानि । प्रथम: । जातऽवेदा: । अनु । सूर्य: । उषस: । अनु । रश्मीन् । अनु । द्यावापृथिवी इति । आ । विवेश ॥१.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 27
विषय - तस्य भासा सर्वमिदं विभाति
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार हम अपने निवास को उत्तम बनाने के लिए प्रभु का स्मरण करें कि (अग्नि:) = वह अग्रणी प्रभु (उषसाम् अग्रम्) = उषाकालों के पूर्वभाग को (अनु अख्यत्) = क्रम से प्रकाशित करते हैं। वही (जातवेदः) = सर्वज्ञ व सर्वव्यापक [जातं जातं वेत्ति, जाते जाते विद्यते] (प्रथमः) = सबके आदिमूल प्रभु (अहानि) = दिनों को (अनु) [अख्यत्] = प्रकट करते हैं। २. वे प्रभु ही (सूर्य अनु) = सूर्य को प्रकाशित करते हैं, (उषसः अनु) = उषाकालों को प्रकाशित करते हैं, (रश्मीन्) = सब प्रकाशमय किरणों को (अनु) [अख्यत्] = प्रकाशित करते हैं। वे प्रभु ही (द्यावापृथिवी आविवेश) = द्यावापृथिवी में प्रविष्ट हो रहे हैं। अपने प्रवेश से ही वे इन्हें दीप्त व दृढ़ बनाते हैं।
भावार्थ - प्रभु ही उषाकालों में, दिनों में, सूर्य में व रश्मिमात्र में दीप्त हो रहे हैं, द्यावापृथिवी में प्रविष्ट होकर प्रभु ही इन्हें दीप्त व दृढ़ बना रहे हैं।
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