अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 26
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
यद॑ग्न ए॒षासमि॑ति॒र्भवा॑ति दे॒वी दे॒वेषु॑ यज॒ता य॑जत्र। रत्ना॑ च॒ यद्वि॒भजा॑सि स्वधावोभा॒गं नो॒ अत्र॒ वसु॑मन्तं वीतात् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒ग्ने॒ । ए॒षा । सम्ऽइ॑ति: । भवा॑ति । दे॒वी । दे॒वेषु॑ । य॒ज॒ता । य॒ज॒त्र॒ । रत्ना॑ । च॒ । यत् । वि॒ऽभजा॑सि । स्व॒धा॒ऽव॒: । भा॒गम् । न॒: । अव॑ । अत्र॑ । वसु॑ऽमन्तम् । वी॒ता॒त् ॥१.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदग्न एषासमितिर्भवाति देवी देवेषु यजता यजत्र। रत्ना च यद्विभजासि स्वधावोभागं नो अत्र वसुमन्तं वीतात् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अग्ने । एषा । सम्ऽइति: । भवाति । देवी । देवेषु । यजता । यजत्र । रत्ना । च । यत् । विऽभजासि । स्वधाऽव: । भागम् । न: । अव । अत्र । वसुऽमन्तम् । वीतात् ॥१.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 26
विषय - समिति-मेल
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = हमारी उन्नतियों के साधक प्रभो! (यजत्र) = [यज्ञ सङ्गति] मेल के द्वारा हमारा त्राण करनेवाले प्रभो। (यत्) = जब (एषा) = यह (समितिः) = मेल (भवाति) = होता है, अर्थात् जब हम परस्पर मिलकर चलते हैं तब यह मिलकर चलना (देवी) = [दिव विजिगीषायाम्] हमारी सब बुराइयों को जीतने की कामनावाला होता है। यह मेल (देवषु) = देवपुरुषों में सदा निवास करता है। (यजता) = यह मेल हमें एक-दूसरे का आदर करना सिखाता है [यज् पूजायाम्]। हम परस्पर प्रेमभाववाले होते है २. (च) = और हे (स्वधावः) = आत्मतत्त्व का शोधन करनेवाले प्रभो! (यत्) = जब आप हमें (रत्ना विभजासि) = उत्तमोत्तम रमणीय वस्तुओं को प्राप्त कराते हैं तब (न:) = हमें (अत्र) = इस मानव-जीवन में (वसुमन्तम्) = उत्तम निवास को देनेवाले (भागम्) = भजनीय धनों को वीतात [आगमय]-प्राप्त कराइए।
भावार्थ - हम परस्पर मेलवाले हों और इससे हमारा निवास सब प्रकार से उत्तम हो।
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