अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 32
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
स्वावृ॑ग्दे॒वस्या॒मृतं॒ यदी॒ गोरतो॑ जा॒तासो॑ धारयन्त उ॒र्वी। विश्वे॑ दे॒वाअनु॒ तत्ते॒ यजु॑र्गुर्दु॒हे यदेनी॑ दि॒व्यं घृ॒तं वाः ॥
स्वर सहित पद पाठस्वावृ॑क् । दे॒वस्य॑ । अ॒मृत॑म् । यदि॑ । गो: । अत॑: । जा॒तास॑: । धा॒र॒य॒न्ते॒ । उ॒र्वी इति॑ । विश्वे॑ । दे॒वा: । अनु॑ । तत् । ते॒ । यजु॑: । गु॒: । दु॒हे । यत् । एनी॑ । दि॒व्यम् । घृ॒तम् । वा: ॥१.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वावृग्देवस्यामृतं यदी गोरतो जातासो धारयन्त उर्वी। विश्वे देवाअनु तत्ते यजुर्गुर्दुहे यदेनी दिव्यं घृतं वाः ॥
स्वर रहित पद पाठस्वावृक् । देवस्य । अमृतम् । यदि । गो: । अत: । जातास: । धारयन्ते । उर्वी इति । विश्वे । देवा: । अनु । तत् । ते । यजु: । गु: । दुहे । यत् । एनी । दिव्यम् । घृतम् । वा: ॥१.३२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 32
विषय - 'गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजन' का सेवन
पदार्थ -
१. मनुष्य (देवस्य) = दिव्यगुणों के पुज प्रभु का (स्वावृक)[स आवृज] = उत्तमता से आवर्जन करनेवाला होता है। एक मनुष्य का झुकाव प्रभु की ओर होता है (यत्) = जब (ई) = निश्चय से (गो: अमृतम्) = गौ का अमृत-तुल्य दुग्ध तथा (अत: जातास:) = इस पृथिवी से उत्पन्न वानस्पतिक पदार्थ [गौ भूमिः] (उर्वी) = इन द्यावापृथिवी को-मस्तिष्क व शरीर को (धारयन्त) = धारण करते हैं, अर्थात् जब एक मनुष्य गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजनों का सेवन करता है तब उसका शरीर व मस्तिष्क दोनों बड़े उत्तम बनते हैं और इस मनुष्य का झुकाव प्राकृतिक भोगों की ओर न होकर प्रभु की ओर होता है। २. (तत्) = तब (विश्वेदेवा:) = सब दिव्यगुण (ते यजुः) = तेरे सम्पर्क को [यज् संगतिकरणे] (अनु गु:) = अनुकूलता से प्रास होते हैं। प्रभु की ओर झुकाव होने पर दिव्यगुण प्रास होते हैं, (यत्) = क्योंकि (एनी) = यह (श्वेत) = शुद्ध-वेदवाणी (दिव्यम्) = अलौकिक-उत्कृष्टतम घृतम् ज्ञानदीप्ति को तथा (वाः) [वार्] = रोगों के निवारण को (दुहे) = पूरित करती है। वेदवाणी ज्ञान को तो प्राप्त कराती ही है, यह मनुष्य की वृत्ति को सुन्दर बनाकर, उसे वासनाओं से ऊपर उठाकर, नीरोग भी बनाती है। यह वरदा वेदमाता आयु: प्राणं' आयुष्य व प्राण को देनेवाली तो है ही।
भावार्थ - जब गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजन हमारे शरीर व मस्तिष्क को धारण करते हैं तब हमारा झुकाव प्रभु की ओर होता है। उस समय हमें दिव्यगुण प्राप्त होते हैं और ज्ञान की वाणी हमें ज्ञानदीप्ति व नीरोगता प्राप्त कराती है।
इस भाष्य को एडिट करें