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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 49
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    प॑रेयि॒वांसं॑प्र॒वतो॑ म॒हीरिति॑ ब॒हुभ्यः॒ पन्था॑मनुपस्पशा॒नम्। वै॑वस्व॒तं सं॒गम॑नं॒जना॑नां य॒मं राजा॑नं ह॒विषा॑ सपर्यत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒रे॒यि॒ऽवांस॑म् । प्र॒ऽवत॑: । म॒ही: । इति॑ । ब॒हुऽभ्य॑: । पन्था॑म् । अ॒नु॒ऽप॒स्प॒शा॒नम् । वै॒व॒स्व॒तम् । स॒म्ऽगम॑नम् । जना॑नाम् । य॒मम् । राजा॑नम् । ह॒विषा॑ । स॒प॒र्य॒त॒ ॥१.४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परेयिवांसंप्रवतो महीरिति बहुभ्यः पन्थामनुपस्पशानम्। वैवस्वतं संगमनंजनानां यमं राजानं हविषा सपर्यत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परेयिऽवांसम् । प्रऽवत: । मही: । इति । बहुऽभ्य: । पन्थाम् । अनुऽपस्पशानम् । वैवस्वतम् । सम्ऽगमनम् । जनानाम् । यमम् । राजानम् । हविषा । सपर्यत ॥१.४९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 49

    पदार्थ -
    १. (प्रवत:) = [प्रकृष्टकर्मवतः] उत्कृष्ट कर्मोंवाले, (मही:) = [मह पूजायाम्] पूजा व उपासना करनेवालों को (परेयिवांसम्) = सुदूर स्थानों से भी प्राप्त होनेवाले प्रभु को (इति) = इस कारण से (हविषा सपर्यत) = हवि के द्वारा पूजित करो। प्रभु अज्ञानियों के लिए दूर-से-दूर होते हैं, परन्तु वे ही प्रभु 'पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम् ज्ञानियों के लिए यहाँ शरीर में ही गुहा के भीतर निहित होते हैं। (इति) = इस कारण इस हृदयस्थ प्रभु के दर्शन के लिए आवश्यक है कि हम उत्कृष्ट कर्मों में लगे रहें [प्रवत्] तथा प्रात:-सायं उस अद्वितीय सत् प्रभु का उपासन करनेवाले हों [महि]। वे प्रभु ही इन (बहुभ्य:) = अनेक अपासकों के लिए (पन्थाम्) = जीवन-मार्ग को (अनुपस्पशानम्) = अनुकूलता से दिखानेवाले होते हैं। सोम्यानां भृमिरसि' वे प्रभु इन शान्त, सौम्य स्वभाववाले उपासकों को, अज्ञानवश विरुद्ध दिशा में जा रहे हों तो मुख मोड़कर ठीक दिशा में चलानेवाले होते हैं । २. वे प्रभु (वैवस्वतम्) = ज्ञान की किरणोंवाले हैं। अपने उपासकों के हृदयों को इन ज्ञान-किरणों से उज्ज्वल करनेवाले हैं। यह ज्ञान का प्रकाश ही इन उपासकों को प्रथभ्रष्ट होने से बचाता है। (जनानां संगमनम्) = ये प्रभु लोगों के एकत्र होने के स्थान हैं। इस प्रभु में अधिष्ठित होने पर सब मनुष्य परस्पर एकत्व का अनुभव करते हैं। (यमम्) = हदयस्थ रूपेण वे प्रभु सबका नियमन करनेवाले हैं तथा (राजानम्) = सूर्य-चन्द्र व तारे आदि सभी लोक-लोकान्तरों की गति को व्यवस्थित करनेवाले हैं। इन प्रभु का उपासन हवि के द्वारा होता है।

    भावार्थ - उत्कृष्ट कर्मोंवाले उपासकों को प्रभु प्राप्त होते हैं। इन विनीत उपासकों के लिए प्रभु मार्ग-दर्शन करते हैं। वे प्रभु ज्ञान की किरणोंवाले हैं। सबका निवासस्थान होते हुए हमें परस्पर एकत्व का अनुभव कराते हैं। उस नियामक व शासक प्रभु का पूजन यही है कि हम यज्ञशेष का सेवन करें।

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