अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 36
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
यस्मि॑न्दे॒वामन्म॑नि सं॒चर॑न्त्यपी॒च्ये न व॒यम॑स्य विद्म। मि॒त्रो नो॒अत्रादि॑ति॒रना॑गान्त्सवि॒ता दे॒वो वरु॑णाय वोचत् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । दे॒वा: । मन्म॑नि । स॒म्ऽचर॑न्ति । अ॒पी॒च्ये᳡ । न । व॒यम् । अ॒स्य॒ । वि॒द्म॒ । मि॒त्र: । न॒: । अत्र॑ । अदि॑ति: । अना॑गान् । स॒वि॒ता । दे॒व: । वरु॑णाय । वो॒च॒त् ॥१.३६॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्देवामन्मनि संचरन्त्यपीच्ये न वयमस्य विद्म। मित्रो नोअत्रादितिरनागान्त्सविता देवो वरुणाय वोचत् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । देवा: । मन्मनि । सम्ऽचरन्ति । अपीच्ये । न । वयम् । अस्य । विद्म । मित्र: । न: । अत्र । अदिति: । अनागान् । सविता । देव: । वरुणाय । वोचत् ॥१.३६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 36
विषय - निष्यापता व प्रभुदर्शन
पदार्थ -
१. (यस्मिन्) = जिस परमात्मा की उपासना होने पर (देवा:) = देववृत्ति के लोग मन्मनि उस ज्ञानस्वरूप प्रभु में (संचरन्ति) = विचरते हैं, जो प्रभु (अपीच्ये) = अन्तर्हित हैं-हृदयरूप गुहा में स्थित होते हुए भी हमारे ज्ञान का विषय नहीं बनते। (वयम्) = हम (अस्य न विद्य) = इस प्रभु के स्वरूप को नहीं जानते। हृदय में होते हुए भी वे हमारे लिए अचिन्त्य ही बने रहते हैं। २.ये प्रभु (नः मित्र:) = हमारे मित्र हैं, (अदिति:) = अपने उपासक के स्वास्थ्य को न नष्ट होने देनेवाले हैं। [अविद्यमाना दितिर्यस्मात्] । मित्ररूप में वे प्रभु हमें पापों से बचाते हैं तो अदिति के रूप में रोगों से। ये सविता-सब प्रेरणओं को देनेवाले (देवः) = ज्ञानप्रकाश के पुज प्रभु (अनागान्) = निरपराध जीवनवाले हम लोगों को (वरुणाय वोचत्) = द्वेषनिवारण के लिए उपदेश देते हैं। द्वेषशून्यता होने पर प्रभु-साक्षात्कार सम्भव होता है।
भावार्थ - प्रभु हमारे मित्र हैं। निर्द्वषता से ही हम इस मित्र का साक्षात्कार कर पाएंगे।
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