अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - आर्षी पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
य॒मस्य॑ माय॒म्यं काम॒ आग॑न्त्समा॒ने योनौ॑ सह॒शेय्या॑य। जा॒येव॒ पत्ये॑ त॒न्वंरिरिच्यां॒ वि चि॑द्वृहेव॒ रथ्ये॑व च॒क्रा ॥
स्वर सहित पद पाठय॒मस्य॑ । मा॒ । य॒म्य᳡म् । काम॑: । आ । अ॒ग॒न् । स॒मा॒ने । योनौ॑ । स॒ह॒ऽशेय्या॑य । जा॒याऽइ॑व । पत्ये॑ । त॒न्व᳡म् । रि॒रि॒च्या॒म् । वि । चि॒त् । वृ॒हे॒व॒ । रथ्या॑ऽइव । च॒क्रा ॥१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
यमस्य मायम्यं काम आगन्त्समाने योनौ सहशेय्याय। जायेव पत्ये तन्वंरिरिच्यां वि चिद्वृहेव रथ्येव चक्रा ॥
स्वर रहित पद पाठयमस्य । मा । यम्यम् । काम: । आ । अगन् । समाने । योनौ । सहऽशेय्याय । जायाऽइव । पत्ये । तन्वम् । रिरिच्याम् । वि । चित् । वृहेव । रथ्याऽइव । चक्रा ॥१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
विषय - समाने योनौ सह शेय्याय
पदार्थ -
१. (यमस्य) = तुझ यम का (काम:) = प्रेम (यम्यं मा) = मुझ यमी के प्रति (आगन्) = प्राप्त हो। (समाने योनौ) = समान ही घर में (सहशेय्याय) = साथ-साथ निवास के लिए हम हों। २. हे यम| तू मेरी कामना कर और मैं (जाया इव) = पत्नी की (भांति पत्ये) = पति के रूप में तेरे लिए (तन्वं रिरिच्याम्) = अपने शरीर को [रिरिच्या प्रकाशयेयम्] प्रकाशित करूँ, अर्थात् हम परस्पर पति-पत्नी के रूप में हों। (चित) = और निश्चय से (विवृहेव) = हम 'धर्म, अर्थ, काम' रूप पुरुषार्थों के लिए उद्योग करें। (रथ्या चक्रा इव) = जैसे रथ के दो पहिये रथ को उद्दिष्ट स्थल पर पहुँचानेवाले होते हैं, उसीप्रकार हम पति-पत्नी इस जीवन-रथ के दो पहियों के समान हों और जीवन को सफल बनाएँ।
भावार्थ - यमी कहती है कि हे यम! क्या तुझे मेरे प्रति प्रेम नहीं! हमारा आपस में सम्बन्ध स्वाभाविक है। हम पति-पत्नी बनकर धर्म, अर्थ, काम आदि पुरुषार्थों को सिद्ध करते हुए जीवन को सफल करें।
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