अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 19
रप॑द्गन्ध॒र्वीरप्या॑ च॒ योष॑णा न॒दस्य॑ ना॒दे परि॑ पातु नो॒ मनः॑। इ॒ष्टस्य॒मध्ये॒ अदि॑ति॒र्नि धा॑तु नो॒ भ्राता॑ नो ज्ये॒ष्ठः प्र॑थ॒मो वि वो॑चति ॥
स्वर सहित पद पाठरप॑त् । ग॒न्ध॒र्वी: । अप्या॑ । च॒ । योष॑णा । न॒दस्य॑ । ना॒दे । परि॑ । पा॒तु॒ । न॒: । मन॑: । इ॒ष्टस्य॑ । मध्ये॑ । अदि॑ति: । नि । धा॒तु॒ । न॒:। भ्राता॑ । न॒: । ज्ये॒ष्ठ: । प्र॒थ॒म: । वि । वो॒च॒ति॒ ॥१.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
रपद्गन्धर्वीरप्या च योषणा नदस्य नादे परि पातु नो मनः। इष्टस्यमध्ये अदितिर्नि धातु नो भ्राता नो ज्येष्ठः प्रथमो वि वोचति ॥
स्वर रहित पद पाठरपत् । गन्धर्वी: । अप्या । च । योषणा । नदस्य । नादे । परि । पातु । न: । मन: । इष्टस्य । मध्ये । अदिति: । नि । धातु । न:। भ्राता । न: । ज्येष्ठ: । प्रथम: । वि । वोचति ॥१.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 19
विषय - स्तवन+वेदज्ञान+यज्ञ [रपद-गन्धर्वी:+अप्या]
पदार्थ -
१. एक घर में गृहिणी (रपत्) = प्रात: उठकर प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करती है। इससे बच्चों में भी भक्तिभाव का उदय होता है। यह गृहिणी वेदवाणी का धारण करती है। स्वाध्याय को जीवन का नियमित अंग बनाती है। यह स्वाध्याय ही तो जीवन को पवित्र बनाता है। (च) = और यह (अप्या) = [अप्यु साध्वी] कर्मों में उत्तम होती है। वेदज्ञान के अनुसार कर्मों में प्रवृत्त रहती है। इस कर्मशीलता के कारण ही (योषणा) = यह अवगुणों से अपने को पृथक् करनेवाली तथा गुणों से अपने को संपृक्त करनेवाली होती है। २. गृहपति भी प्रार्थना करता है कि (नदस्य) = स्तवन करनेवालों में मेरे स्तवन करने पर (न:) = हमारे (मन:) = मनों को (अदिति:) = अदीना देवमाता-अथवा अखण्डित [अ-दिति] यज्ञक्रिया, अथवा अविनाशी प्रभु (परिपातु) = सुरक्षित करें। प्रभु-स्तवन में लगा हुआ मेरा मन वासनाओं से आक्रान्त होगा ही कैसे? (न:) = हम सब [इस घर के व्यक्तियों] को (अदितिः) = वे अविनाशी प्रभु (इष्टस्य मध्ये निदधातु) = यज्ञों के बीच में स्थापित करें-प्रभु कृपा से हमारा जीवन यज्ञमय हो। (न:) = हमारा (भ्राता) = भरण करनेवाला (न:) = हममें सबसे बड़ा, (प्रथमः) = प्रथम स्थान में स्थित व्यक्ति (विवोचति) = हमारे लिए विविध क्रियाओं का उपदेश करता है। उस बड़े के कहने के अनुसार ही घर में हम सब क्रियाओं को करते हैं।
भावार्थ - आदर्श घर वही है जिसमें पति-पत्नी 'प्रभु का स्तवन करनेवाले, स्वाध्यायशील व पवित्र वृत्तिवाले' हैं। प्रभु कृपा से उनका मन यज्ञप्रवण बना रहता है। उस घर में यह नियम होता है कि बड़े ने कहा और छोटे ने किया। यही देवपूजा है।
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