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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 52
    सूक्त - पितरगण देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    आच्या॒ जानु॑दक्षिण॒तो नि॒षद्ये॒दं नो॑ ह॒विर॒भि गृ॑णन्तु॒ विश्वे॑। मा हिं॑सिष्ट पितरः॒केन॑ चिन्नो॒ यद्व॒ आगः॑ पुरु॒षता॒ करा॑म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽअच्य॑ । जानु॑ । द॒क्षि॒ण॒त: । नि॒ऽसद्य॑ । इ॒दम् । न॒: । ह॒वि: । अ॒भि । गृ॒ण॒न्तु॒ । विश्वे॑ । मा । हिं॒सि॒ष्ट॒ । पि॒त॒र॒: । केन॑ । चि॒त् । न॒: । यत् । व॒: । आग॑: । पु॒रु॒षता॑ । करा॑म ॥१.५२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आच्या जानुदक्षिणतो निषद्येदं नो हविरभि गृणन्तु विश्वे। मा हिंसिष्ट पितरःकेन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽअच्य । जानु । दक्षिणत: । निऽसद्य । इदम् । न: । हवि: । अभि । गृणन्तु । विश्वे । मा । हिंसिष्ट । पितर: । केन । चित् । न: । यत् । व: । आग: । पुरुषता । कराम ॥१.५२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 52

    पदार्थ -
    १. हे (पितर:) = पितरो। आप (जानु आच्या) = घुटनों को संगतरूप में पृथिवी पर स्थापित करके, अर्थात् घुटने मिलाकर आसन पर स्थित होकर (दक्षिणतः निषध) = दक्षिण की ओर बैठकर, अर्थात् हमारे दहिने और बैठकर विश्वे सब (न:) = हमारे लिए (इदं हवि:) = इस हवि को (अभिगृणन्तु) = उपदिष्ट करें। आप हमें यज्ञादि कर्मों का उपदेश करें। [घुटने मिलाकर भूमि पर बैठने से वात पीड़ाएँ सामान्यत: नहीं होती। ये होती प्रायः बड़ी उम्र में ही है, अतः पितरों के लिए यह आसन उपयुक्ततम है]।आदर देने के लिए हम इन्हें दक्षिणपाश्र्व में बिठाते हैं। इस प्रकार स्थित होकर ये हमारे लिए हवि का उपदेश करें। यह हवि ही प्रभु-पूजन का सर्वोत्तम साधन है 'कस्मै देवाय हविषा विधेम'। २. घर पर आये हुए पितरों के विषय में हम कुछ त्रुटि भी कर बैठे तो हम चाहते हैं कि वे पितर हमसे अप्रसन्न न हो जाएँ। हे [पितरः] मान्य पितरो! (पुरुषता) = एक अल्पज्ञ पुरुष के नाते (यत्) = जो भी (व:) = आपके विषय में (आग:) = अपराध (कराम) = कर बैठें, उस (केनचित्) = किसी भी अपराध से (न:) = हमें (मा) = मत (हिंसिष्ट) = हिंसित कीजिए। आप हमसे रुष्ट न हों, आपकी कृपा हमपर बनी ही रहे।

    भावार्थ - पितर आएँ। संगतजानु होकर वे हमारे दक्षिणपार्श्व में बैठे और हमारे लिए कर्तव्यकर्मों का उपदेश करें। अज्ञानवश हो जानेवाले हमारे अपराधों से वे अप्रसन्न न हों।

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