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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    यस्ते॑ अग्नेसुम॒तिं मर्तो॒ अख्य॒त्सह॑सः सूनो॒ अति॒ स प्र शृ॑ण्वे। इषं॒ दधा॑नो॒ वह॑मानो॒अश्वै॒रा स द्यु॒माँ अम॑वान्भूषति॒ द्यून् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽम॒तिम् । मर्त॑: । अख्य॑त् । सह॑स: । सू॒नो॒ इति॑ । अति॑ । स: । प्र । शृ॒ण्वे॒ । इष॑म् । दधा॑न: । वह॑मान: । अश्वै॑: । आ । स: । द्यु॒ऽमान् । अम॑ऽवान् । भू॒ष॒ति॒ । द्यून् ॥१.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते अग्नेसुमतिं मर्तो अख्यत्सहसः सूनो अति स प्र शृण्वे। इषं दधानो वहमानोअश्वैरा स द्युमाँ अमवान्भूषति द्यून् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ते । अग्ने । सुऽमतिम् । मर्त: । अख्यत् । सहस: । सूनो इति । अति । स: । प्र । शृण्वे । इषम् । दधान: । वहमान: । अश्वै: । आ । स: । द्युऽमान् । अमऽवान् । भूषति । द्यून् ॥१.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 24

    पदार्थ -
    १. हे (अग्ने) = [अगि गतौ, गति: ज्ञानम्] सर्वज्ञ व (सहसः सूनो) = बल के पुञ्ज सर्वशक्तिमन् प्रभो! (यः मर्तः) = जो मनुष्य (ते) = आपकी (सुमतिम्) = कल्याणी बुद्धि को (अख्यत्) = [कथयति] प्रतिपादित करता है-आपके किये हुए वेदज्ञान को प्रसारित करना है, (स:) = वह (अतिप्रशृण्वे) = सब लोकों में ख्याति प्राप्त करता है। वह अत्यन्त यशस्वी जीवनवाला होता है। २. (इषं दधान:) = प्रभु की प्रेरणा को धारण करता हुआ, (अश्वैः) = इन्द्रियाश्वों से (वहमान:) = उस प्रेरणा को क्रियारूप में लाता हुआ (स:) = वह पुरुष (आधुमान्) = सब ओर से प्रकाशमय जीवनवाला, अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट ज्ञान की ज्योतिवाला तथा (अमवान्) = बलवाला होता हुआ (द्यून् भूषति) = अपने जीवन के दिनों को भूषित करता है।

    भावार्थ - हम उस शक्तिपुञ्ज प्रभु की सुमति का प्रसार करते हुए कीर्तिमय जीवनवाले हो। प्रभु-प्रेरणा के अनुसार कार्यों को करते हुए 'शुमान् व अमवान्' बनें-ज्योतिर्मय व शक्तिशाली।

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