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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑ पृथि॒व्याऽ अ॒यम्। अ॒पा रेता॑सि जिन्वति। इन्द्र॑स्य॒ त्वौज॑सा सादयामि॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। मू॒र्द्धा। दि॒वः। क॒कुत्। पतिः॑। पृ॒थि॒व्याः। अ॒यम्। अ॒पाम्। रेता॑सि। जि॒न्व॒ति॒। इन्द्र॑स्य। त्वा॒। ओज॑सा। सा॒द॒या॒मि॒ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपाँ रेताँसि जिन्वति । इन्द्रस्य त्वौजसा सादयामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। मूर्द्धा। दिवः। ककुत्। पतिः। पृथिव्याः। अयम्। अपाम्। रेतासि। जिन्वति। इन्द्रस्य। त्वा। ओजसा। सादयामि॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 14
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    भावार्थ -
    व्याख्या देखो० ० ३ । १२ ॥ जिस प्रकार (दिवः मूर्धा ) द्यौलोक का शिरो भाग ( अग्निः) सूर्य है और वह ही ( ककुत्पतिः ) सबसे बड़ा स्वामी है और ( पृथिव्याः ) पृथिवी का भी स्वामी है उसी प्रकार (अयम् ) यह ( अग्निः ) तेजस्वी पुरुष, राजा भी (दिवः ) प्रकाशमान तेजस्वी पुरुषों या राजसभा का ( मूर्धा ) शिर उनमें शिरोमणि ( ककुत् ) सर्वश्रेष्ठ, ( पृथिव्याः ) पृथिवी का ( पतिः ) पालक, स्वामी है। ( अपाम्) सूर्य जिस प्रकार जलों के (रेतांसि ) वीर्यों को या सार भागों को ग्रहण करता है उसी प्रकार यह राजा भी ( अपां ) आप्त प्रजाओं के सार भाग, वीर्यों और बलों को ( जिन्वति ) परिपूर्ण करता है । वश करता है । हे तेजस्विन् ! (त्वा ) तुझको ( इन्द्रस्य ओजसा ) इन्द्र, वायु और सूर्य के ( तेजसा ) बल पराक्रम के साथ ( सादयामि ) स्थापित करता हूं || शत० ७ । ४ । १४१॥

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