यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 46
ऋषिः - विरूप ऋषिः
देवता - सूर्यो देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आ प्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽ अ॒न्तरि॑क्ष॒ꣳ सूर्य्य॑ऽ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च॥४६॥
स्वर सहित पद पाठचि॒त्रम्। दे॒वाना॑म्। उत्। अ॒गा॒त्। अनी॑कम्। चक्षुः॑। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। अ॒ग्नेः। आ। अ॒प्राः॒। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। सूर्य्यः॑। आ॒त्मा। जग॑तः। त॒स्थुषः॑। च॒ ॥४६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्रन्देवानामुदगादनीकञ्चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः । आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षँ सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥
स्वर रहित पद पाठ
चित्रम्। देवानाम्। उत्। अगात्। अनीकम्। चक्षुः। मित्रस्य। वरुणस्य। अग्नेः। आ। अप्राः। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। अन्तरिक्षम्। सूर्य्यः। आत्मा। जगतः। तस्थुषः। च॥४६॥
विषय - सूर्य समान नेता और परमेश्वर ।
भावार्थ -
जो ( देवानाम् ) पृथिवी आदि का एक मात्र (चित्रं) संचित, ( अनीकम् ) बलस्वरूप होकर ( उत् अगात् ) उदय को प्राप्त होता है । और जो ( मिन्नस्य ) मित्र, सूर्य, प्राण ( वरुणस्य ) जल, उदान और मृत्यु का भी ( चक्षुः ) ज्ञापक है और जो ( द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी, प्रकाश और अन्धकार से युक्त दोनों प्रकार के लोकों को और ( अन्तरिक्षम् ) अन्तरिक्ष को भी (आ अप्राः) सब प्रकार से व्यापता और पूर्ण कर रहा है। वह (सूर्यः ) सूर्य के समान ( जगतः ) जंगम और ( तस्थुषः च) स्थावर सबका ( आत्मा ) आत्मा सर्वान्तर्यामी,सबका प्रेरक धारक है ॥शत० ७ । ५ । २ । २७ ।।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सूर्यो देवता । निचृत् त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥
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