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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 25
    ऋषिः - इन्द्राग्नी ऋषी देवता - ऋतवो देवताः छन्दः - भुरिगतिजगती, भुरिग्ब्राही बृहती स्वरः - निषादः, मध्यमः
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    मधु॑श्च॒ माध॑वश्च॒ वास॑न्तिकावृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तः श्ले॒षोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्॑पन्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽ अ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽ इ॒मे। वास॑न्तिकावृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽ इन्द्र॑मिव दे॒वाऽ अ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मधुः॑। च॒। माध॑वः। च॒। वास॑न्तिकौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सव्र॑ता इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। इ॒मेऽइती॒मे। वास॑न्तिकौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भि॒ऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒ऽसंवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गिर॒स्वत्। ध्रु॒वेऽइति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥२५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतूऽअग्नेरन्तःश्लेषोसि कल्पेतान्द्यावापृथिवी कल्पन्तामापऽओषधयः कल्पन्तामग्नयः पृथङ्मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः । येऽअग्नयः समनसोन्तरा द्यावापृथिवीऽइमे वासन्तिकावृतूऽअभिकल्पमानाऽइन्द्रमिव देवा अभिसँविशन्तु तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवे सीदतम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मधुः। च। माधवः। च। वासन्तिकौ। ऋतूऽइत्यृतू। अग्नेः। अन्तःश्लेष इत्यन्तःऽश्लेषः। असि। कल्पेताम्। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। कल्पन्ताम्। आपः। ओषधयः। कल्पन्ताम्। अग्नयः। पृथक्। मम। ज्यैष्ठ्याय। सव्रता इति सऽव्रताः। ये। अग्नयः। समनस इति सऽमनसः। अन्तरा। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। इमेऽइतीमे। वासन्तिकौ। ऋतूऽइत्यृतू। अभिकल्पमाना इत्यभिऽकल्पमानाः। इन्द्रमिवेतीन्द्रम्ऽइव। देवाः। अभिसंविशन्त्वित्यभिऽसंविशन्तु। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवेऽइति ध्रुवे। सीदतम्॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 25
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    भावार्थ -
    ( मधुः च) मधु और ( माधवः च ) माधव अर्थात् चैत्र और वैशाख के दोनों (वासन्तिकौ ऋतू ) बसन्त के दो ऋतु अर्थात् मास रूप से दो स्वरूप हैं। ये दोनों जिस प्रकार संवत्सर स्वरूप अग्नि के बीच में (श्लेषः ) जोड़ने वाले हैं, उसी प्रकार मधु के समान मधुर गन्ध और पुष्प युक्र और माधव या वैशाख के समान फलोत्पादक दोनों प्रकार के पुरुष मानों (अग्ने : ) राजा रूप प्रजापति के दोनों वसन्त ऋतु के दो मासों के समान उसके ( अन्तः ) भीतर ( श्लेषः असि ) स्नेहशील होते हैं और दो राजाओं के बीच सन्धि कराने में कुशल होते हैं। इनके द्वारा ही ( द्यावापृथिवी ) सूर्य और भूमि के समान नर और नारी, राजा और प्रजा ( कल्पेताम् ) कार्य करने में समर्थ होते हैं । ( आपः ओषधयः कल्पन्ताम् ) और जिस प्रकार वसन्त के दोनों मासों के द्वारा सम्पूर्ण ओषधियां वीर्यवान् होती हैं उसी प्रकार वीर्यवती बलवती वीर प्रजायें भी मधु माधव के समान पुष्प फलजनक हों और जाएं भी कार्य-कारण को देख परस्पर सन्धि के कराने वाले सदस्य जनों के द्वारा समर्थ होती हैं। और जैसे वसन्त के दोनों मास ज्येष्ठ मास में होने वाले ओषधि आदि के कारण होते हैं उसी प्रकार सभी ( अग्नयः) अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान् लोग ( मम ) मेरे मुझ राजा के सर्वश्रेष्ठ पदाधिकार की प्राप्ति और रक्षा के लिये ( सव्रताः ) समान कार्य में दीक्षित होकर ( पृथक् ) अलग २ भी ( कल्पन्ताम् ) अपना २ कार्य करने में समर्थ हो । और (ये) जो ( द्यावापृथिवी ) द्यौ और भूमि दोनों के बीच या राजा और प्रजा के बीच में ( समनसः ) एक समान चित्त वाले, प्रेमी (अन्य ) विद्वान् पुरुष हैं वे सब भी ( वासन्तिको ऋतू ) वसन्त काल के दो मास चैत्र वैशाख के समान मधुर गुणों से युक्त होकर राजा के लिये सुखकारी और ( अभिकल्प- मानाः ) सामर्थ्यवान् होकर (देवा: इन्द्रम् इव) प्राणगण जिस प्रकार आत्मा के आश्रय पर रहते हैं उसी प्रकार वे सब अग्नि स्वभाव तेजस्वी विद्वान् सदस्य और माण्डलिक राजगण भी ( इन्द्रम् अग्निम् सं विशन्तु) बड़े सम्राट् के चारों ओर विराजे । हे (ध्रुवे) द्यौ और पृथिवी ! हे राज प्रजागरण ! (तया देवतया ) उस महान् देव, राजा से और उस राजगण से तू ( अङ्गिरेश्वत् ) तेजस्वी और पूर्णाङ्ग होकर तुम दोनों ( सीदतम् ) स्थिर होकर विराजो ॥ शत० ७ । ४ । २ । २९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋतवो देवता (१) भुरिगति जगतीं । निषादः । (२) भुरिग् ब्राह्मी बृहती । मध्यमः ॥

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