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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 18
    ऋषिः - त्रिशिरा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    भूर॑सि॒ भूमि॑र॒स्यदि॑तिरसि वि॒श्वधा॑या॒ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य ध॒र्त्री। पृ॒थि॒वीं य॑च्छ पृथि॒वीं दृ॑ꣳह पृथि॒वीं मा हि॑ꣳसीः॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूः। अ॒सि॒। भूमिः॑। अ॒सि॒। अदि॑तिः। अ॒सि॒। वि॒श्वधा॑या॒ इति॑ वि॒श्वऽधायाः॑। विश्व॑स्य। भुव॑नस्य। ध॒र्त्री। पृ॒थि॒वीम्। य॒च्छ॒। पृ॒थि॒वीम्। दृ॒ꣳह॒। पृ॒थि॒वीम्। मा। हि॒ꣳसीः॒ ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री । पृथिवीँ यच्छ पृथिवीन्दृँह पृथिवीम्मा हिँसीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भूः। असि। भूमिः। असि। अदितिः। असि। विश्वधाया इति विश्वऽधायाः। विश्वस्य। भुवनस्य। धर्त्री। पृथिवीम्। यच्छ। पृथिवीम्। दृꣳह। पृथिवीम्। मा। हिꣳसीः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 18
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    भावार्थ -
    हे पृथिवि ! हे स्त्रि ! तू ( भूः असि ) सब को उत्पन्न करने में समर्थ होने से 'भू: ' है । ( भूमि: असि ) सब का आश्रय होने से 'भूमि' है । (अदितिः असि ) अखण्डित, अहिंसनीय, अखण्डित बल और चरित्र वाली होने से 'अदिति' है । ( विश्वधाया ) समस्त प्रजाओं को धारण करने वाली होने से 'विश्वधाया' है । ( विश्वस्य भुवनस्य धर्त्त्त्री ) समस्त 'भुवन' उत्पन्न होने वाले प्राणियों और राज्य कार्यों को धारण पोषण करने हारी हैं । हे राजन् ! तू इस ( पृथिवीं यच्छ ) पृथिवी को और हे पते ! तू इस प्रजा को भूमि रूप स्त्री को (यच्छ) नियम में सुरक्षित रख या विवाह कर (पृथिवीम् दृंह) इस पृथिवी को बढ़ा, दृढ कर। ( पृथिवों मा हिंसी: ) इस पृथिवी को विनाश मत कर, मत मार, पीड़ा मत दे ॥ शत० ७ । ४ । २। ७ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । प्रस्तारपंक्तिः । पञ्चमः ॥

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