यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 7
ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः
देवता - ईश्वरो देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
याऽइष॑वो यातु॒धाना॑नां॒ ये वा॒ वन॒स्पतीँ॒१ऽरनु॑। ये वा॑व॒टेषु॒ शेर॑ते॒ तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑॥७॥
स्वर सहित पद पाठयाः। इष॑वः। या॒तु॒धाना॑ना॒मिति॑ यातु॒ऽधाना॑नाम्। ये। वा॒। वन॒स्पती॑न्। अनु॑। ये। वा॒। अ॒व॒टेषु॑। शेर॑ते। तेभ्यः॑। स॒र्पेभ्यः॑। नमः॑ ॥७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
याऽइषवो यातुधानानाँये वा वनस्पतीँरनु । ये वावटेषु शेरते तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥
स्वर रहित पद पाठ
याः। इषवः। यातुधानानामिति यातुऽधानानाम्। ये। वा। वनस्पतीन्। अनु। ये। वा। अवटेषु। शेरते। तेभ्यः। सर्पेभ्यः। नमः॥७॥
विषय - सर्पण स्वभाव दुष्टों का दमन । पक्षान्तर में गुप्तचरों को नियोजन ।
भावार्थ -
( याः ) जो ( यातुधानानां ) प्रजा को पीड़ा देनेवाले दुष्ट पुरुषों के ( इषवः ) शस्त्र हैं अर्थात् उनके द्वारा चलाये हथियारों के समान प्रजा के नाशकारी हैं ये वा ) और जो ( वनस्पतीन् अनु ) वृक्षों के आश्रित सर्पों के समान प्रजा को आश्रय देनेवाले माण्डलिक भूपतियों के अधीन रहते हैं । ( ये अवटेषु ) जो गढ़ों में रहने वाले सापों के समान प्रजा की निचली श्रेणियों में ( शेरते ) गुप्त रूप से रहते हैं ( तेभ्यः सर्पेभ्यः ) उन सब कुटिल स्वभाव के लोकों का भी ( नमः ) दमन हो ॥ शत० ७ । ४ । १ । २९ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋष्यादि पूर्ववत् । अनुष्टुप् छन्दः । गांधारः ।।
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